हजारों साल पहले कोई प्रथा बनी होती है। कोई रीति रिवाज़ होता है जिसके पीछे कोई न कोई बजह होती है लेकिन वो बजह ख़तम होने के बाद भी वो प्रथा चलती रहती है किसी में इतनी हिम्मत नहीं होती ये पूछने की, कि हम ये क्या कर रहे हैं और क्यों कर रहे हैं। बस सबको ये पता होता है कि ऐसा ही होता है।
हमें कभी भी धर्म के बिषय में प्रश्न पूछना नहीं सिखाया जाता और अगर हम पूछ भी लें तो हमारे बड़ों को इस बारे में ज्यादा कुछ पता नहीं होता। क्यूंकि उन्होंने ये बातें अपने बड़ों से सीखी होती हैं और उनके बड़ों ने अपने बड़ों से। इस तरह कि कुछ बातों और उनके पीछे के कारणों को हम आपके सामने रख रहे हैं।
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Toggleरात के समय झाड़ू क्यों नहीं लगाई जाती
यह विश्वास कि रात में झाड़ू का उपयोग करना दुर्भाग्य लाता है या अशुभ माना जाता है, इस विश्वास की उत्पत्ति कई संभावित कारणों से खोजी जा सकती है
लोककथाएं
कुछ संस्कृतियों में झाडू को जादू टोने और जादू से जोड़ा गया है। माना जाता है कि झाड़ू की व्यापक गति अलौकिक संस्थाओं को परेशान या आकर्षित करती है।
विशेष रूप से रात के समय जब यह माना जाता है कि आत्माएं या चुड़ैलें अधिक सक्रिय होती हैं। रात में झाड़ू का उपयोग करने से संभावित रूप से इन अलौकिक शक्तियों को आमंत्रित किया जा सकता है या घर में नकारात्मक ऊर्जा आ सकती है।
व्यावहारिक कारण
प्राचीन समय में जब बिजली का अविष्कार नहीं हुआ था। उस समय झाड़ू दिन के समय में ही दी जाती थी। क्यूंकि घरों में रात के समय में दीवे, लालटेन आदि का उपयोग किया जाता था चूँकि दीवे की रोशनी इतनी पर्याप्त नहीं होती थी कि उसमे अच्छे से देखा जा सके इसलिए जब कभी महिलाओं के नाक अथवा कान के गहने गिर जाया करते थे तो बो कूड़े के साथ बाहर फेंक दिए जाते थे।
तो इन सबसे बचने के लिए उस समय ये प्रथा चली कि रात के समय झाड़ू नहीं दिया जाये या फिर अगर झाड़ू देना बहुत अधिक जरुरी भी हो तो झाड़ू तो दे दिया जाये पर कूड़े को दहलीज़ के बाहर न फेंका जाये और सुबह एक बार सारा कूड़ा अच्छे से देखने के बाद ही उसे बाहर फेंका जाये ताकि कोई जरुरी सामान कूड़े के साथ बाहर न चला जाये।
इसके अतिरिक्त अतीत में झाडू अक्सर प्राकृतिक सामग्री जैसे टहनियाँ, तिनके या पौधों के रेशों का उपयोग करके हाथ से बनाई जाती थी।
ये झाडू मंद प्रकाश की स्थिति में झाडू लगाने में कम प्रभावी थे और रात में इनका उपयोग करने से संभावित रूप से अपूर्ण या अप्रभावी सफाई हो सकती है।
इस प्रकार एक व्यावहारिक कारण ने इस विश्वास में योगदान दिया हो सकता है कि रात के समय झाडू का उपयोग नहीं किया जाना चाहिए।
बिल्ली का रास्ता काटना अशुभ क्यों माना जाता है
बिल्ली के रास्ता काटने को भी भारतीय समाज में अशुभ माना जाता है। और इस बात को इतना गहराई से माना जाता है की बिल्ली के रास्ता काटने के बाद लोग अपना रास्ता तक बदल लेते है। हम सबने ये जानने की कभी कोशिश नहीं की कि ये सब कब शुरू हुआ होगा ।
हमारे दिलो दिमाग में ये बातें इतनी गहराई से बैठी हुई हैं कि हम इनके बारे में पूछना भी जरुरी नहीं समझते । इस विश्वास की उत्पत्ति को विभिन्न सांस्कृतिक और ऐतिहासिक कारकों में खोजा जा सकता है। यहाँ कुछ संभावित कारण दिए गए हैं
व्यावहारिक कारण
बिल्लियों को उनकी चपलता और तेजी से और चुपचाप चलने की क्षमता के लिए जाना जाता है। जब एक बिल्ली अचानक किसी के रास्ते को पार करती है तो यह उन्हें चौंका सकती है या आश्चर्यचकित कर सकती है।
बहुत समय पहले जब मोटर गाड़ियों का आविष्कार नहीं हुआ था। उस समय व्यापारी लोग अधिक दूरी का यात्रा घोड़ो पर तय करते थे वो अपना बेचने का सामान भी घोड़ों पर ही ले जाते थे। अब बिल्लियाँ ज्यादातर तेजी से तब भागतीं हैं जब कोई कुत्ता या कोई अन्य जानवर उनका पीछा कर रहा होता है।
तो जब भी बिल्ली तेजी से रास्ता काटते हुए निकल जाती थी और व्यापारी रुकते नहीं थे तो बिल्ली के पीछे भाग रहे जंगली जानवर घोड़ो से टकरा जाते थे या तो व्यापारी खुद गिर जाते थे या उनका कीमती सामान नीचे गिर कर टूट जाया करता था। इस कारण उस समय ये प्रथा चली कि अगर कोई भी बिल्ली रास्ता काटती है तो बहीं पर रुक जाओ
और किसी और को निकलने दो जिससे पता चल जाये कि बिल्ली का पीछा कोई जानवर तो नहीं कर रहा और अगर कोई जानवर उसका पीछा कर रहा हो तो कोई दूसरा व्यक्ति ही गिरे और हम और हमारे सामान का कोई नुकसान न हो। लेकिन हम देखते हैं कि गॉंव में यह बात अब अन्धविश्वाश का रूप धारण कर चुकी है।
बिल्ली के रास्ता काटने पर या तो लोग रास्ता बदल देते हैं या फिर उतनी देर इंतज़ार करते हैं जब तक कोई दूसरा व्यक्ति उस रास्ते से न निकल जाये।
पीपल के पेड़ की पूजा क्यों की जाती है
हमारे यहाँ पीपल के पेड़ की पूजा करने की मान्यता है हर घर का अपना एक पीपल का पेड़ होता है जिसकी पूजा की जाती है। फसल की कटाई के बाद पहली बार अन्न पीपल के पेड़ को ही चढ़ाया जाता है और पीपल के पेड़ को पहाड़ी बाबा या ब्रह्म देवता कहा गया है।
अब यहाँ पर एक बात ध्यान देने योग्य है कि दुनिया में 9 ही ऐसे पौधे हैं जो रात के समय ऑक्सीजन छोड़ते हैं । इनमें अमरीका बाम, एलोवेरी, तुलसी, वाइल्ड जरबेरा, स्नेक प्लांट,ऑर्किड , क्रिसमस केक्टस, पीपल और नीम शामिल हैं। ये पौधे हर वक्त ऑक्सीजन देते हैं। हमारी आस पास आसानी से उपलब्ध होने बाला पेड़ पीपल का है।
हमारे पूर्बजों में अधिकतर अनपढ़ थे तो उनको इन चीज़ो के बारे में समझाना आसान नहीं था। इसलिए जो भी पढ़ा लिखा व्यक्ति था
उसने इन चीज़ो को धर्म से जोड़ना उचित समझा तो उन्होंने पीपल की पूजा करने और उसे ना काटे जाने को धर्म से जोड़ दिया ताकि घरों के आस पास पर्याप्त मात्रा में ऑक्सीजन का संचार होता रहे।
इस प्रकार हर घर का कम से कम एक पीपल का पेड़ होना अनिवार्य कर दिया गया । इसके अलावा हमारे भारत में बहुत से लोगो ने पीपल के नीचे और अन्य पेड़ो के नीचे बैठ कर ध्यान लगाया है तो उन्होंने इस बात को अवश्य महसूस किया होगा कि रात को पीपल के पेड़ के नीचे बैठने से घुटन का आभास नहीं होता जबकि अन्य पेड़ों के नीचे बैठने से होता है। तो उन्होंने पीपल के पेड़ को अलौकिकता से जोड़ दिया।
पीपल के पेड़ की पूजा के अन्य क्या क्या कारण हो सकते हैं आइये समझते हैं।
बुद्ध के ज्ञानोदय के साथ जुड़ाव
बौद्ध परंपरा के अनुसार यह माना जाता है कि महात्मा बुद्ध ने भारत के बोधगया में एक पीपल के पेड़ के नीचे ध्यान करते हुए ज्ञान प्राप्त किया था।
बोधि वृक्ष अनुभव के रूप में जानी जाने वाली इस घटना को बौद्ध इतिहास के सबसे महत्वपूर्ण क्षणों में से एक माना जाता है। नतीजतन, पीपल के पेड़ को ज्ञान, आध्यात्मिक जागृति और मुक्ति के मार्ग के प्रतीक के रूप में सम्मानित किया जाता है।
यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि पीपल के पेड़ का महत्व विभिन्न क्षेत्रों और धार्मिक परंपराओं में भिन्न हो सकता है। हालांकि यह कई लोगों द्वारा गहराई से पूजनीय है और पूजा जाता है।
यह एक सार्वभौमिक अभ्यास नहीं है और विभिन्न संस्कृतियों के अपने स्वयं के पवित्र पेड़ या पौधे हो सकते हैं जो समान प्रतीकात्मक मूल्य रखते हैं।
बलि प्रथा का आरम्भ कब हुआ
कुछ इलाके हमारे देश में ऐसे होते थे जहाँ बहुत कड़ाके की ठण्ड पड़ती थी। सारा सारा साल ठण्ड पड़ती थी और खाने के लिए कृषि करना सम्भब नहीं था।
कुछ इलाको में 6-7 महीने ऐसी ठण्ड पड़ती थी कि खाने के लिए कोई सब्जी नहीं उगा सकते थे तो लोगो की समझ में आ गया कि हमें पशु को ही खाना पड़ेगा।
अब यहाँ एक बात ध्यान देने योग्य है कि केवल उन पशुओं को बलि के लिए चुना गया जो उपयोगी नहीं थे। जैसे गाय जो दूध देती थी, बकरी जो दूध देती थी , बैल भी गाड़ी खींचने या हल के काम आता था तो इन पशुओं को खाने के लिए नहीं चुना गया और बैल को इसलिए भी नहीं खा सकते थे क्यूंकि इतने बड़े बैल को खायेगा कौन। क्यूंकि उस समय फ्रिज जैसी चीज़े नहीं बनी थीं जिसमे खाने को सुरक्षित रखा जा सके।
उस समय सयुंक्त परिवार होते थे तो छोटे जानवरों को काटना शुरू कर दिया और इस तरह बकरे या भेड़ को खाने के लिए चुना गया। आगे चलकर जब परिवार छोटे हुए तो वही बकरी या भेड़ उत्सव के समय काटी जाने लगी क्यूँकि सारी इस्तेमाल हो जाएगी और ख़राब नहीं जाएगी या फेंकनी नहीं पड़ेगी।
अब सबको जीवन जीने के लिए पशु खाना था तो सबने मिलकर सोचा कि इसे ईश्वर को अर्पित कर दिया जाये। क्यूंकि ईश्वर को अर्पित करने से ये शुद्ध हो जायेगा।
और उन्होंने ईश्वर को अर्पित करना शुरू कर दिया जिसने बलि प्रथा को जन्म दिया। इस प्रथा को हमारे गॉव के तांत्रिक लोगो ने अधिक बढ़ावा दिया।
उनके अंदर देवियॉँ आ जाती हैं और वो देवियाँ बकरे की बलि मांगती है कभी इन देविओं ने इन तांत्रिक लोगो से कभी उनके रिश्तेदारों या उनके बच्चों की बलि नहीं मांगी।
इसके अलावा एक और कारण जो कि I.A.S के पाठयक्रम के नैतिकता के बिषय में पढ़ाया जाता है कि प्राचीन काल में जब किसी जानवर की प्रजाति में बृद्धि हो जाती थी तो एक बैलेंस मेंटेन करने के लिए पशुओं को काटा जाता था
और उन पशुओं को काटा जाता था जिनका बर्तमान में कोई उपयोग नहीं रह जाता था। जैसे दूध देने वाली गाय भैंस को नहीं काटा जाता था।
रात में नाखून क्यों नहीं काटे जाते ?
प्राचीन समय में जब बिजली का अविष्कार नहीं हुआ था। चूँकि घरों में रात के समय में दीवे आदि का उपयोग किया जाता था और दीवे की रोशनी इतनी पर्याप्त नहीं होती थी कि उसमे अच्छे से देखा जा सके | अपने अधिकतर कामो के लिए लोग दिन की रौशनी पर ही निर्भर रहते थे।
रात में पर्याप्त रोशनी न होने की वजह से उस समय रात में नाखून ना काटने की सलाह दी जाती थी। एक और वजह ये भी हैं कि उस समय नेल कटर जैसे औजार भी नहीं हुआ करते थे।
ऐसे में वह लोग छुरी, ब्लेड आदि से ही नाखून काटते थे। जिससे रात के समय दीवे की रोशनी में उँगलियों के कट जाने का खतरा अधिक होता था।
इसलिए दिन की रौशनी में ही नाखून काटना सुरक्षित होता था। बस इस वजह से कि पुराने लोगो ने रात में नाखून काटने को अपशगुन बना दिया।
परन्तु आज के समय में जब हमारे पास सभी संसाधन मौजूद हैं। तब भी ऐसा लगता है कि हम 18बी शताब्दी में ही जी रहे हैं।
बिल्ली के रोने से क्या अपशगुन होता है ?
कुत्तो और बिल्लियों का रोना अपशगुन माना जाता है। प्राचीन समय से ये धारणा चली आ रही है। कुत्ते और बिलियों के रोने को किसी अनहोनी से जोड़ा जाता है। या किसी की मृत्यु से भी इसे जोड़ते है ।ऐसा माना जाता है की बिल्लियाँ अगर आपके घर के पास रो रही हैं तो वो संदेश है कि कुछ अनहोनी होने वाली है। या ये आपके किसी रिस्तेदार की मृत्य का सन्देश दे रही हैं। यहाँ तक कि हमारे घरों के आस पास अगर बिल्लियां रो रही हो तो हम उन्हें डंडा मार के भगा देते हैं।
20 हर्ट्ज़ से नीचे की तरंगो, जिनको अवश्रव्य तरंगें कहते है। और 20000 से ऊपर की तरंगो, जिनको पराश्रव्य तरंग कहते है, को मनुष्य के कान नहीं सुन सकते परन्तु कुत्ते और बिल्लियाँ इनको आसानी से सुन लेते हैं। तो अगर कहीं पर सुनामी आ रही या फिर भूकंप के झटको को ये जानवर आसानी से अनुभव कर लेते हैं और रोना शुरू कर देते हैं।
26 दिसंबर 2004 को जब सुनामी आई थी तो उसमे लगभग 2 लाख 40000 लोगो ने अपनी जान गवाई थी। परन्तु इसमें ये जानवर बहुत काम मरे थे क्यूंकि ये जानवर पहले ही ऊपर सुरक्षित स्थानों पर चले गए थे। इस प्रकार बिल्लियाँ जब रो रही होती हैं तो इसका साफ़ मतलब होता है कहीं न कहीं आपदा आ रही है। इस बात को महसूस किया गया और इनके रोने को अपसगुन से जोड़ दिया गया।
नमक का गिरना अशुभ क्यों माना जाता है ?
हमारे घरों में नमक का गिरना अच्छा नहीं समझा जाता। माना जाता है कि नमक अगर कहीं पर गिर जाये तो उसे आँखों की पुतलियों पर जो बाल होते हैं उससे साफ़ करना पड़ता है।
इसके पीछे का कारण ये है कि अंग्रेजो के समय में नमक बनाने के अधिकार भारतियों के पास नहीं थे। और चूँकि ये अधिकार भारतीयों के पास नहीं थे तो ये नमक हमें बहुत महंगा मिलता था। नमक उस समय की सबसे महँगी चीज़ों में सुमार था। लोग घरों में खाने के लिए मोटा नमक इस्तेमाल करते थे। इस लिए उस समय के बजुर्गों ने छोटे बच्चों को नमक की कीमत समझाने के लिए इस तरह की लोकोकितियों का इस्तेमाल किया।
सावन के महीने में मांस क्यों नहीं खाया जाता है?
भारत में सावन का महीना बहुत पवित्र माना जाता है इस महीने में माँस खाने को बिलकुल मनाही होती है। और माँस खाने को बिलकुल पाप समझा जाता है। अब अगर हम ध्यान से इस बात को समझे तो हमें पता चलेगा कि इस महीने में सारे जीव अपना वंश बढ़ा रहे होते हैं। मछलियाँ अंडे दे रही होती हैं।
दूसरे जानवर जिन्हे कैटल की श्रेणी में रखा जाता हैं वो भी मेटिंग कर रहे होते हैं या बच्चों को जन्म दे रहे होते हैं। और अगर इस महीने जीव हत्या की जाती है तो प्रकृति का संतुलन बिगड़ जायेगा। इसलिए बुद्धिजीवियों ने इस महीने को पवित्र महीना माना और जीव हत्या करके माँस खाना इस महीने में वर्जित कर दिया। वास्तव में इस महीने में सम्पूर्ण सृष्टि की पूजा की जाती है।
महिलाओं को मासिक धर्म में मंदिर में प्रवेश से क्यों मना किया जाता है
ये बात भी पूर्णता सच नहीं है क्यूंकि तमिलनाडु राज्य में ठीक इससे उल्टा रिवाज होता है। यहाँ पर ऐसी इस तरह की कोई मनाही नहीं होती बल्कि यहाँ पर पहली बार पीरियड आने पर लड़कियों की पूजा की जाती है । तमिलनाडु एक ऐसा शहर है जहां लड़की के पहले पीरियड्स पर खुशी मनाई जाती है।
यहां इसे एक त्योहार के रूप में सेलिब्रेट किया जाता है। तमिलनाडु में पीरियड्स के इस त्योहार को मंजल निरातु विजा कहा जाता है। इस दौरान लड़कियों को इस बात से अवगत कराया जाता है कि अब वह महिला बनने की ओर आगे बढ़ रही हैं। उनके जीवन में एक नया सफर शुरू हो चुका है। इसलिए यह त्योहार मनाया जाता है। पहले पीरियड्स पर लड़की के सभी रिश्तेदारों को बुलाया जाता है। बकायदा कार्ड भी छपवाए जाते हैं।
भव्य समारोह आयोजित किया जाता है। लड़की का चाचा नारियल, आम और नीम के पत्तों से एक झोपड़ी बनाता है जिसे कुदिसाई भी कहते हैं। इस झोपड़ी में लड़की के लिए बेहद ही स्वादिष्ट तथा तरह तरह के व्यंजन रखे जाते हैं। साथ ही एक धातु की झाडू भी रखी जाती है। जिससे झोपड़ी को साफ किया जाता है। इस त्योहार पर लड़की को बिल्कुल दुल्हन जैसा सजाया जाता है। साथ ही कई उपहार भी दिए जाते हैं।
कई जगहों में पीरियड के दौरान महिलाओं को पूजा अर्चना करने पर क्यों पाबंदी है ?
पूर्वकाल में स्त्रियों को मासिक धर्म के समय घर का कोई कार्य नहीं करने दिया जाता था । क्योंकि पूर्वकाल में स्त्रियां रक्त स्राव को स्वतंत्र रूप से होने देती थीं । इसलिये उस समय संक्रमण का खतरा ज्यादा होता था। साफ सफाई के अभाव से उनमे सक्रमण की सम्भावना होती थी ।
फिर कुछ काल के बाद स्त्रियों ने गन्दे कपड़ो को प्रयोग करना शुरू कर दिया लेकिन उससे भी उनमें संक्रमण की संभावना कम नही हुई। माहवारी (menstrual Cycle or MC) में कई स्त्रियों को निचले उदर में ऐंठनभरी पीड़ा होती है। किसी औरत को तेज दर्द हो सकता है या मन्द चुभने वाला दर्द भी हो सकता है।
कई महिलाओं को पीठ में भी दर्द हो सकता है। और रक्त स्राव की वजह से स्त्रियों में कमजोरी भी आ जाती है। और इस समय औरतों में मूड स्विंग सबंधी समस्यायें भी होती हैं जिससे वो छोटी छोटी बातों पर परेशान (इरिटेट) हो जाती हैं। इन सभी वजहों से स्त्रियों को 5 दिन तक आराम देने के लिये उन्हें घरेलू काम करने से मना किया जाता था। जो उस समय के अनुसार सही था।
लेकिन आज के समय में जब स्त्रियां मासिक धर्म के समय सेनेटरी नैपकिन, पैड आदि का प्रयोग करने लगी है जिससे स्त्रियों की स्वच्छता का स्तर भी पहले से बहुत सुधर गया है। इसलिये आज के समय में स्त्रियों के घर के काम करने में कोई बुराई नहीं है।
संक्षेपण
हमारी हर मान्यता के पीछे कोई न कोई कारण होता हैं यहाँ तक कि किसी स्थान के नाम के पीछे भी कोई न कोई कारण छुपा होता है। जैसे गुजरात नाम गुर्जर वंस के नाम पर पड़ा। ज्वालामुखी नाम इस लिए पड़ा क्यूंकि वहां पर ज्वाला माता की ज्योति है। हमें किसी भी मान्यता के पीछे आँख बंद कर के विश्वास करने से पहले उसके पीछे के कारणों का पता अवश्य करना चाहिए तभी हम अपना इंसान होना जस्टिफाई कर सकते हैं।
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