भारत, मोटे अनाजों के निर्यात के मामले में इस समय दुनिया का पांचवां सबसे बड़ा देश है। लेकिन ये हमेसा से ऐसा नहीं था। एक समय ऐसा भी था जब 1943 के अकाल में माताओं ने मुठी भर चावलों के लिए अपने बच्चों को बेच दिया था।

विवाहित पत्नियां उन लोगो के साथ भाग गई जो उन्हें दो जून की रोटी खिला सकता था। ये सब चीज़ें उस समय आम थीं। और ये सब हुआ भूख से बेहाल भारत में। सच कहा है रोटी से बड़ा कोई ईस्वर नहीं होता।

तो आइये इतिहास में थोड़ा पीछे चलते हैं। पहले वहां चलते हैं जब भारत एक समृद्ध देश था और यहाँ पर खेती एक उन्नत स्तर पर थी।

मुग़ल काल से पहले भारत की कृषि

मुगलों के आने से पूर्व भारत में कृषि एक व्यवस्थित तरीके से होती थी। भारत में होने वाली कृषि को देखकर, भारत में मुग़ल साम्राज्य की स्थापना करने बाला बाबर भी हैरान था।

बाबरनामा जो बाबर ने ही लिखी थी उसमे बाबर उत्तर भारत की कृषि के बारे में जिक्र करते हुए लिखता है कि हिंदुस्तान का जयादातर हिस्सा मैदानी जमीन पर बसा हुआ है।

हालाँकि खेती करने के लिए बहुत सारी जमीन है। लेकिन कहीं भी बहते पानी का इंतज़ाम नहीं है। ये शायद इसलिए है क्यूंकि यहाँ फसल उगाने के लिए किसानों को पानी की बिलकुल ज़रूरत नहीं पड़ती।

शरद ऋतू की फसलें बिना पानी के ही तयैर हो जाती हैं। और ये बाबर के लिए काफी हैरानगी की बात थी कि बसंत ऋतू की फसलें भी बिना बारिस के तयैर हो जाती थीं।

जमीन बदलकर की जाती थी खेती

उस समय के लोग ये भी जानते थे कि एक ही जगह पर बार बार खेती करने से, उस जमीन पर पोषक तत्वों की कमी हो जाती है और वो भूमि कृषि योग्य नहीं रहती इसलिए वो जमीन बदल बदल कर खेती किया करते थे।

इस घटना का बर्णन भी बाबर ने बाबरनामा में किया है। बाबर लिखता है कि हिंदुस्तान में बस्तियाँ और गॉंव यहाँ तक कि शहर के शहर, एक लम्हे में ही वीरान भी हो जाते हैं और बस भी जाते हैं।

बर्षों से आबाद किसी बड़े शहर के बाशिंदे उसे छोड़कर चले जाते हैं और वो ये काम इस तरह से करते हैं कि केवल डेढ़ दिनों के अंदर उनका नामोनिशान उस जगह से मिट जाता है।

दूसरी ओर अगर वे किसी जगह पर बसना चाहते हैं तो उन्हें पानी के रास्ते खोदने की ज़रूरत नहीं पड़ती क्यूंकि उनकी सारी फसलें बारिस के पानी में उगती हैं और चूँकि हिंदुस्तान की आबादी बेशुमार है तो लोग उमड़ते चले आते हैं।

यहाँ खस की घास बहुत मात्रा में पाई जाती है इसलिए उन्हें घर बनाने या दिवार खड़ी करने की ज़रूरत नहीं पड़ती। जंगल अपार हैं ,झोंपड़ियां बनाई जाती हैं और यकायक एक गॉंव और शहर खड़ा हो जाता है।

रहट के जरिये होती थी सिचाईं

बाबर बाबरनामा में लिखता है लाहौर दीपालपुर और ऐसी दूसरी जगहों पर लोग रहट के जरिये सिचाईं करते हैं। वे रस्सी के दो गोलाकार फंदे बनाते हैं जो कुएं की गहराई के मुताबिक लंबे होते हैं। इन फंदो में थोड़ी थोड़ी दूरी पर वे लकड़ी के गुटके लगाते हैं।

रहट से सिंचाई

और इन गुटको पर घड़े या बाल्टियाँ बांध देते हैं। लकड़ी के गुटकों और घड़ों से बँधी इन रस्सियों को कुएं के ऊपर पहियों से लटकाया जाता है। बैलों के घूमने के साथ ही पहिये घूमते थे और पानी ऊपर आ जाता था। इस पानी को पेड़ पौधों तक पहुँचाया जाता था।

अंग्रेजी शासन के दौरान कृषि की हालत

इस प्रकार मुगलों के समय तक भारत एक कृषि प्रधान देश था और यहाँ पर कृषि एक उन्नत स्तर पर थी। परन्तु फिर दौर आया अंग्रेजों का और उन्होंने हर काम केवल मुनाफा कमाने के इरादे से किया। बिना ये सोचे कि उसके दूरगामी परिणाम क्या होंगे।

छोटी छोटी नीतियां एक पूरी की पूरी संस्कृति को कैसे प्रभावित कर सकती है ये हमें अंग्रेजों ने बताया उन्होंने जो बेड़ा गर्क उस समय भारत की कृषि का किया था वो आज भी भारत की कृषि में नज़र आता है।

अंग्रेजो की नीतियों ने किस तरह से भारत की कृषि को प्रभावित किया

अंग्रेजो की नीतियों के भारत की कृषि पर सकरात्मक और नकरात्मक दोनों प्रभाव पड़े परन्तु जो प्रभाव उस समय सकरात्मक दिख रहे थे उसके भी दूरगामी परिणाम नकरात्मक ही थे।

उदाहरण के लिए, अंग्रेजो ने नकदी फसलों जैसे नील की खेती को बढ़ावा दिया और उन फसलों को बेचने के लिए एक बाजार तैयार किया। जिससे कृषि उत्पादन बढ़ गया और किसानो की आय भी बढ़ने लगी।

परन्तु कृषि में उस समय हो रहे लाभ और अंग्रेजो की दमनकारी नीतियों को देखकर कई कारीगरों ने अपने मुख्य व्यवसायों को छोड़कर कृषि को अपना लिया जिससे अन्य व्यवसाय चरमरा गए और कृषि के क्षेत्र में एकाएक भीड़ बढ़ गई। जिससे कृषि उत्पादकता में भारी गिराबट दर्ज की गई।

अंग्रेजो की नीतियों के कारण सामान्य किसान गरीब हो गया क्यूंकि उनकी नीतियों ने केवल नकदी फसलों को प्रमोट किया जिससे अन्य फसलों के उत्पादन में कमी हुई उनकी कीमतें एकाएक बढ़ गईं।

अंग्रेजो ने कृषि के लिए आधुनिक तकनीकों और आधुनिक उपकरणों जैसे कुएं खोदना और नहर सिचाई आदि का उपयोग किया जिससे खेती की उत्पादन क्षमता में बृद्धि हुई।

लेकिन अंग्रेजो की नीतियों के कारण किसानो पर राजस्व (Revenue) की मांग बढ़ गई जिसके कारण बीजों और उर्वरकों पर खर्च कम किया गया जिससे फसलों की पैदावार में कम होने लगी। सामान्य किसान वर्ग गरीब हुआ और आत्मनिर्भर ग्रामीण आबादी का एक बहुत बड़ा हिस्सा ख़त्म हो गया।

ब्रिटिश शासन के दौरान 12 बड़े अकाल पड़े जिनमें मुख्य अकाल हैं।

बंगाल का 1770 का अकाल जिसमे भुखमरी से 1 करोड़ लोगो की मृत्यु हो गई।

1783–84 का अकाल जिसमे भुखमरी से 1 करोड़ 10 लाख लोग मारे गए।

1791–92 का अकाल जिसमे 1 करोड़ 10 लाख लोग मारे गए। ये सबसे भयानक अकाल था जिसमे कई लोगो के दाह संस्कार तक नहीं किये गए। मरने वालों की हड्डियों से रास्ते सफ़ेद हो गए थे।

1837–38 का आगरा का अकाल जिसमे भुखमरी से 8 लाख लोग मरे गए।

1860 -61 का अकाल जिसमे भुखमरी से 20 लाख लोग मारे गए।

1865-67 का अकाल जिसमे भुखमरी से 10 लाख लोग मारे गए।

1868 -70 अकाल जिसमे भुखमरी से 15 लाख लोग मारे गए।

1876 -78 का अकाल जिसमे भुखमरी से 55 लाख लोग मारे गए।

1896 – 97 का अकाल जिसमे भुखमरी से 50 लाख लोग मारे गए।

1899 – 1900 का अकाल जिसमे भुखमरी से 20 लाख लोग मारे गए।

1943 – 44 का बंगाल का अकाल जिसमे भुखमरी से 25 लाख लोग मारे गए।

लेकिन बंगाल से उस समय अनाज इंग्लैंड के लिए निर्यात हो रहा था।

इन अकालों के पीछे का मुख्य कारण अंग्रेजो की नीतियां ही रहीं। इन नीतियों में उच्च कर, कृषि की उपेक्षा और मुक्त व्यापार आदि शामिल थे।

अंग्रेज़ों का भारतियों के दुःख दर्द से कोई लेना देना नहीं था उन्होंने तब भी निर्यात किया जब यहाँ पर लोग भूखे मर रहे थे।

इतिहासकारों के अनुसार अंग्रेजो की नीतियों के कारण 1880 से लेकर 1946 तक के इन 46 सालों में लगभग 11 करोड़ भारतीयों की जान गई।

1943 के अकाल में तो स्थिति बहुत ही भयानक थी। माताओं ने मुठी भर चावलों के लिए अपने बच्चों को बेच दिया।

भूखी पत्नियां उन लोगों के साथ भाग गई जो उन्हें रोटी खिला सकता था। कई लोगो ने थोड़े से अनाज के एवज में अपनी जमीने बेच दीं और साहूकारों की चांदी हो गई।

इन अकालों के परिणामस्वरुप अच्छी खासी जन्म दर होने के वावजूद 1860 और 1934 के बीच भारत की जनसँख्या में कोई बृद्धि नहीं हुई। ये 1860 में भी 292 मिलियन थी और 1934 में भी 292 मिलियन ही थी।

गरीवी इतनी कि बस समझ लो कि अंग्रेजो ने भारत नाम की सोने की चिड़िया को दाने दाने का मोहताज बना दिया था।

भारत में हरित क्रांति की कहानी

अब इस तरह की कृषि की हालत में भारत आजाद हुआ। उस समय भारतीयों को एक जून की रोटी खाने के भी लाले पड़े हुए थे। अंग्रेजों ने भारत को पूरी तरह से निचोड़ लिया था।

इसलिए भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित नेहरू को भी कहना पड़ा कि “बाकी सभी चीजों के लिए इंतजार किया जा सकता है लेकिन कृषि के लिए नहीं क्यूंकि भूखे लोग राष्ट्र का निर्माण नहीं कर सकते थे।

1947 में भारत की खेती केवल मानसून पर निर्भर थी और लोग केवल देसी खाद का इस्तेमाल करते थे। मानसून सही समय पर नहीं होने पर खेती भी बर्बाद हो जाती थी। भुखमरी से पीड़ित भारत को उस समय अनाज चाहिए था क्यूंकि जनसँख्या 35 करोड़ के लगभग हो चुकी थी।

अमेरिका में जनसँख्या कम थी और अनाज ज्यादा इसलिए उन्होंने PL-480 कानून लागु किया।

1954 में अमेरिका ने PL-480 के तहत भारत को अनाज भेजना शुरू किया।

अमेरिका ने ये शर्त रखी कि भारत को केमिकल फर्टिलाइज़र और पेस्टिसाइड भी गेहूं के साथ खरीदना होगा। ये फर्टिलाइज़र अमेरिका और यूरोप में ही बनता था। भूखे भारत से भी अमेरिका ने कमाई करने में कोई कसर नहीं छोड़ी।

PL-480 के तहत जो अनाज भारत में आता था वो बहुत ही घटिया किसम का होता था।

भारत 20% अनाज आयात करता था और बाकि ज़रूरतें अपनी खेती से पूरी करता था।

भारत की जनसंख्या भी तेजी से बढ़ रही थी।

1965 के भारत पाकिस्तान युद्ध के बाद अमेरिकी राष्ट्रपति लिंडन जॉनसन भारत को धमकी देते हैं कि भारत, अमेरिका के द्वारा दी सहायता का इस्तेमाल अगर रक्षा बजट में करेगा तो अमेरिका, भारत को अनाज नहीं देगा

1964 में लाल बहादुर शास्त्री भारत के प्रधानमंत्री बने।

उन्होंने अनाज के लिए अमेरिका पर अत्यधिक निर्भरता को कम करने के लिए मेक्सिको (उत्तरी अमेरिका का एक देश ) से गेहूं की नई क़िस्म के हाइब्रिड बीजों के आयात को मंज़ूरी दे दी।

मैक्सिको का ये गेहूँ का पौधा दिखने में छोटा सा दिखता था परन्तु इससे उपज दोगुनी होती थी।

ये पौधा द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जापान में देखा गया था। उसके बाद वैज्ञानिकों ने 13 बर्ष के शोधों के द्वारा इसे तैयार किया गया था।

लाल बहादुर शास्त्री ने मेक्सिको से गेहूं के इन बीजों के आयात को मंज़ूरी दे दी।

ये बीज हरियाणा, उत्तर प्रदेश और पंजाब के किसानों को मुफ्त में बांटे जाते हैं।

सरकार उर्बरको और कीटनाशकों को भी किसानो में सब्सिडी के साथ बितरित करती है। जिससे भारत में कीटनाशकों का प्रचलन बढ़ गया।

इससे बीच अमेरिका और वियतनाम( 1955 से 1975) में युद्ध चल रहा था।

भारत इस युद्ध को लेकर अमेरिका का विरोध करता है।

अमेरिका भारत को होने वाले गेहूं निर्यात पर नई नई शर्तें लगाना शुरू करता है।

कई बार भूख से त्रस्त भारत जब अनाज का बेसब्री से इंतज़ार कर रहा होता था उस समय अमेरिका के द्वारा शिपमेंट को लम्बे समय के लिए रोक के रखा जाता था।

1968 में भारत 170 लाख टन गेहूं की पैदावार के साथ, गेहूं की पैदावार पिछले सारे रिकॉर्ड तोड़ देती है।

अगले दो सालो तक रबी की सारी फसलों के साथ बाकि फसलों के उत्पादन में भी दोगुनी बृद्धि होती है।

1971 में भारत पाकिस्तान युद्ध हुआ और अमेरिकी रास्ट्रपति निक्सन भारत के खाद्यान निर्यात को पूरी तरह से बैन करने की धमकी देते हैं।

लेकिन अब भारत अमेरिका की आत्मनिर्भरता छोड़ने के लिए बिलकुल तैयार था।

1972 में भारत PL-480 प्रोग्राम से अपने आपको पूरी तरह से अलग कर लेता है।

और भारत अनाज के मामले में पूरी तरह से आत्मनिर्भर बनने की तरफ अग्रसर हो जाता है। भारत इस समय मोटे अनाजों के निर्यात में दुनिया का पांचवां सबसे बड़ा देश है। भारत जिन अनाजों का निर्यात कर रहा हैं वो हैं

कुट्टू, रागी, बाजरा, ज्वार, कंगनी, गेहूं, चावल और मक्का

कंगाली में जिस खेती को अपनाया उसी खेती से मुँह मोड़ रहा भारत

1967 की हरित क्रांति के बाद खेतों में आधुनिक तकनीक, हाइब्रिड बीज और खाद उर्बरकों का इस्तेमाल होने लगा। और भारत ने अनाज पैदा करने के सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए और भारत एक आत्मनिर्भर राष्ट्र बना।

लेकिन भारत के आत्मनिर्भर बनने के साथ ही भारत में कीटनाशकों , केमिकल रसायनों, यूरिया का व्यापार भी फैलने फूलने लगा। अधिक से अधिक अनाज पैदा करने की होड़ में खेती में जहरीले रसायनो और कीटनाशकों का अंधाधुंध उपयोग होने लगा।

जिसके कारण भारत की भूमि बंजर होती गई। मिट्टी की उर्वरा शक्ति में कमी आ गई। मिट्टी में पोषक तत्वों की कमी हो गई। आज तो आलम ये है कि अगर यूरिया का उपयोग खेतो में न हो तो अच्छी फसल होने की कोई आस किसानो को नहीं होती।

लोगो को कैंसर जैसी भयंकर बिमारियों ने घेर लिया। पंजाब के मालवा इलाके में इतने ज्यादा लोग कैंसर की चपेट में हैं कि इस इलाके को ‘कैंसर बेल्ट’ कहा जाता है। कीटनाशक और कृषि रसायन के अत्यधिक इस्तेमाल ने इन लोगो की ज़िंदगी नरक कर दी है।

पंजाब में एक ट्रेन का नाम ही कैंसर एक्सप्रेस है ये पंजाब के भठिंडा से बीकानेर लिए चलती है और इस ट्रेन में कैंसर के मरीजों का किराया नहीं लगता।

दूसरा इन रसायनो ने भारत की स्थानीय फसलों को पूरी तरह से ख़तम कर दिया है। अब भारत भूमि पर पहले की तरह दालें, तिल और अन्य स्थानीय फसलें नहीं होती। एक ही तरह की खेती ने जमीन को काफी नुक्सान पहुँचाया है।

एक ही तरह की खेती के चलते हरियाणा, पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश की पूरी खेती गेहूं और धान पर निर्भर हो गई है। चूँकि धान जैसी फसलों के लिए खड़े पानी की जरूरत होती है। जिससे यहाँ पर पानी का स्तर काफी नीचे चला गया है।

इन सभी कारणों के कारण भारत में जैविक खेती जरुरी बन गई है। इस खेती में रसायनो का इस्तेमाल नहीं होता है। जैविक खेती (Organic Farming) में इस्तेमाल होने वाली खादों में

  • कम्पोस्ट खाद :- ये पेड़ो की पत्तियों , बचे खुचे खाने से तैयार की जाती है।
  • हरी खाद: ये हरे पौधों को जमीन में दबाकर तैयार की जाती है।
  • वर्मी कम्पोस्ट या केंचुआ खाद
  • सीपीपी (गाय के गोबर की खाद)
  • तरल खाद: ये मवेशियों के मल मूत्र से तैयार की जाती है।

भारत में इस समय कहाँ कहाँ पर जैविक खेती की जाती है

सिक्किम भारत का पहला ऐसा राज्य बना जहाँ पर पूरी तरह से जैविक खेती हो रही है। यहाँ पर रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के इस्तेमाल पर रोक लगा दी गई है।

सिक्किम के अलावा कर्नाटक, मध्य प्रदेश, राजस्थान, महाराष्ट्र, त्रिपुरा और उत्तराखंड भी जैविक खेती की दिशा में काम कर रहे हैं।

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