ईसाई धर्म ईसा मसीह के जन्म उनकी शिक्षाओं और उनकी मृत्यु पर आधारित एक धर्म है। ईसा मसीह का जन्म 4 से 6 ईसा पूर्व बताया जाता है और उनकी मृत्यु 30 से 33 AD के लगभग बताई गई है। वो जन्म से एक यहूदी थे। उन्हें रोमवासियों ने राजनीतिक कारणों के चलते शूली पर चढ़ा दिया था।
ईसा मसीह की मृत्यु के बाद उनके अनुयायियों ने ईसाई धर्म का प्रचार प्रसार करना शुरू किया। परन्तु ये सब इतना आसान नहीं था क्यूंकि रोम में उस समय ईसाइयत को कोई धर्म ही नहीं माना जाता था इस पर पूरी तरह से पाबन्दी लगा दी गई थी।
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Toggleईसाइयत के आरम्भ में ईसाईयों पर अत्याचार
रोमन साम्राज्य ने ईसाइयत को गैर क़ानूनी घोषित कर दिया था। ईसाई धर्म का प्रचार करने वालों को मार दिया जाता था, जिन्दा जला दिया जाता था या फिर बड़े बड़े स्टडियमों में भूखे शेरों के सामने डाल दिया जाता था। ये सब लगभग 300 सालों तक चलता था। नीरो और डायोक्लेटियन जैसे राजाओं ने ईसाईयों पर क्रूरता की सारी सीमाएं लाँघ दी।
कॉन्स्टेंटाइन (306-337) के शासन में स्थापित हुआ ईसाई धर्म
ईसाई धर्म उस समय स्थापित होना शुरू हुआ जब रोमन सम्राटों ने ईसाई धर्म अपनाना शुरू किया। कॉन्स्टेंटाइन 306 ईस्वी में राजा बना और उसने 337 ईस्वी तक शासन किया। एक किवदंती के अनुसार, 312 में मिल्वियन ब्रिज की लड़ाई के समय कॉन्स्टेंटाइन को आकाश में एक क्रॉस दिखाई दिया जिस पर लिखा था “इन हॉक सिग्नो विंसेस” जिसका मतलब था तुम ही जीतोगे।
उस लड़ाई को जीतने के बाद कॉन्स्टेंटाइन का हृदय परिवर्तन हुआ और उसने ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया। और 313 ईस्वी में कॉन्स्टेंटाइन ने उस कानून को (जो कानून ईसाई धर्म को अपराध मानता था) वापस ले लिया। और अब ईसाई धर्म को मानना अपराध नहीं रह गया।
इसके बाद रोम ने ईसाई धर्म को राजकीय धर्म(State Religion) के रूप में अपना लिया और फिर जहाँ जहाँ रोम का विस्तार हुआ ईसाई धर्म फैलता चला गया।
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पूर्वी साम्राज्य के इस समय क्या हालात थे
रोम का साम्राज्य फैलते फैलते पूर्व में कंसुंतुनिया तक फ़ैल चूका था। 330 ई. में सम्राट कॉन्स्टेंटाइन ने कंसुंतुनिया को अपनी राजधानी बनाया और 337 में कॉन्स्टेंटाइन की मृत्यु के बाद शहर का नाम बदलकर कॉन्स्टेंटिनोपोलिस रख दिया। बाद में इसी को बाइज़ेंटाईन नाम दिया गया। आजकल इसको इस्ताम्बुल के नाम से जाना जाता है जो कि तुर्की में स्थित है।
कैसे प्रचलन में आये कैथोलिक ईसाईयों के 7 संस्कार (7 Sacraments)
रोम के साम्राज्य में उस समय काफी धर्म प्रचलित थे और वो सब अपनी मान्यताओं के अनुसार पूजा अर्चना या प्रार्थना करते थे। कॉन्स्टेंटाइन खुद एक अलग धर्म से था और सूर्य देवता का उपासक था। उसने अपनी पुरानी प्रथाओं को ईसाइयत से जुड़ने के बाद भी नहीं छोड़ा था।
325 AD में कॉन्स्टेंटाइन ने एक सभा (Council of Nicaea) बुलाई। ताकि रोम के बाकि धर्मो को भी एक सूत्र में पिरोया जा सके। जोसेफ पॉल के अनुसार कॉन्स्टेंटाइन ने सब धर्मो को ईसाइयत में मिलाने के लिए बहुत से समझौते किये और अन्य धर्मो के रीति रिवाजों को मिलकर ईसाइयत को एक नयी पहचान दी।
कैथोलिक धर्म में शुरू हुई यीशु की माता मरियम की पूजा
रोम में एक धर्म था जिसकी देवी थीं आइसिस। कॉफ़िन टेक्स्ट के अनुसार आइसिस बिजली की चमक से गर्भवती हुई थी । जब इस धर्म के लोग चर्च में गए तो इनके लिए माता आईसिस के स्थान पर यीशु की माता मरियम को स्थान दिया गया और कैथोलिक धर्म में माता मरियम की पूजा शुरू हुई।
मिथ्र(Mithras) धर्म के कारण शुरू हुआ प्रभु भोज संस्कार (EUCHARIST)
जोशेफ पॉल के अनुसार, पहली शताब्दी से लेकर 5वीं शताब्दी तक रोम में मिथ्र धर्म बहुत प्रचलित था। बहुत से रोमी सैनिक इसके अनुयायी थे। मिथ्र धर्म में शांति के लिए बैल की बलि दी जाती थी। उसका मांस खाया जाता था और लहू पिया जाता था। इस धर्म के लोगों का मानना था कि ईस्वर बलिदान के मांस और लहू में बिद्यमान होता है और मांस खाने और लहू पीने से उनका उधार हो जायेगा।
तो मिथ्र धर्म के लोगों को खुश करने के लिए बैल के मांस और लहू के स्थान पर यीशु के लहू और मांस को जोड़ दिया गया और प्रभु भोज (EUCHARIST) प्रथा की शुरुआत हुई।
मिथ्र धर्म में 7 संस्कार थे उसी प्रकार रोमन कैथोलिक में भी 7 संस्कार पाए जाते हैं।
रोम के विशप (पोप) कैसे हुए शक्तिशाली
जोशेफ पॉल बताते हैं कि ज्यादातर रोमन शासक और उनकी प्रजा बहुत से देवी देवताओं को मानती थी परन्तु उन सबके ऊपर किसी एक को बरियता देती थी। रोम नगर रोम साम्राज्य के केंद्र में था और रोम के सम्राट भी बहीं रहते थे इसलिए रोम के चर्च के मुखिया (विशप) को बाकि चर्चों पर वरीयता दे दी गई।
अब इस चर्च ने बाकि चर्चों को भी अपने अधिकार क्षेत्र में समेटना शुरू कर दिया। और यहाँ से शुरू होती है पोप की प्रथा और आगे चलकर पोप एक बहुत ही शक्तिशाली धार्मिक गुरु बन गया।
पूर्वी और पश्चिमी चर्च में मतभेद और The Great Schism (महान फूट)
- पूर्वी चर्च मुख्य रूप से ग्रीक भाषा और पश्चिमी चर्च मुख्य रूप से लैटिन भाषा का उपयोग करते थे।
- पश्चिम में यूचरिस्ट(प्रभु भोज) में अखमीरी वेफ़र्स का उपयोग किया जाता था जबकि पूर्व में केवल खमीरी रोटी का उपयोग किया जाता था।
- रोम में पुजारियों को ब्रह्मचारी होना आवश्यक था जबकि पूर्व में विवाहित आम लोगों को नियुक्त किया जा सकता है।
- पश्चिमी चर्चो ने लैटिन शब्द फिलिओक (जिसका मतलब होता है “और पुत्र से भी”) को शामिल करने के लिए नाइसिन पंथ में संशोधन किया गया। उनके अनुसार पवित्र आत्मा पिता और पुत्र दोनों से निकलती है इसके बिपरीत पूर्वी चर्च मानते थे कि पवित्र आत्मा केवल पिता से निकलती है।
- रोम के बिशप या पोपों ने पतरस के उत्तराधिकारियों (पतरस जो की यीशु के शिष्य थे को कैथोलिक धर्म में पहला पोप माना गया है) के रूप में सभी बिशपों पर अपना अधिकार जताना शुरू कर दिया था। जबकि पूर्व में इस विचार को मान्यता नहीं दी गई।
और इन सब विवादों के कारण 1054 में पूर्वी चर्च और पश्चिमी चर्च या कैथोलिक चर्च और ऑर्थोडॉक्स (रुदीबादी) चर्च एक दूसरे से अलग हो गए जिसे The Great Schism के नाम से जाना जाता है।
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