किसी भी काम को करने का सबसे कठिन समय तब होता है जब उसे पहली बार किया जाता है और बात जब बर्षों से दिमाग में बैठी रूढ़ियों को तोड़ने की हो तो ये लगभग नामुनकिन हो जाता है।

क्यूंकि ऐसा करते समय बिना दिमाग की उस भीड़ से भी लड़ना होता है जो अपने दिमाग से संचालित नहीं होती बल्कि उसका संचालन, उसके दिमाग में बर्षों से बैठी परम्पराएं करती हैं।

वो परम्पराएं जो शुरू तो किसी, दूसरे कारण से होती हैं परन्तु पीढ़ी दर पीढ़ी, ये परम्पराओं इतनी विकृत हो जाती हैं कि इन परम्पराओं को निभाने वाले भी भूल जाते हैं कि आखिर ये परम्पराएं शुरू किस वजह से हुईं थीं।

जब बात दलित अधिकारों या स्त्रियों के अधिकारों की आती है तो सब लोगों को एक ही नाम याद आता है डॉक्टर बीम राव आंबेडकर। परन्तु और भी बहुत से लोग ऐसे हैं जिन्होंने इन गलत परम्पराओं को तोड़ने और समाज को सही दिशा दिखाने के लिए अपने जीवन तक की परवाह नहीं की।

विवरणज्योतिराव फुलेसावित्रीबाई फुले
जन्म11 अप्रैल, 18273 जनवरी, 1831
जन्म स्थानमहाराष्ट्र के सतारा जिले का कटगुण गाँवमहाराष्ट्र के सतारा जिले का नायगांव गाँव
पिता का नामगोविंदराव फुलेखंडोजी नेवसे पाटिल
माता का नामचिमनाबाई फुलेलक्ष्मीबाई
विवाह18401840
संतानयशवंतराव फुले ( गोद लिया हुआ पुत्र)यशवंतराव फुले ( गोद लिया हुआ पुत्र)
जातिमालीमाली
मृत्यु28 नवंबर, 1890 को पुणे में10 मार्च, 1897 को पुणे में

हम बात कर रहे हैं ज्योतिराव फुले और उनकी धर्मपत्नी सावित्रीबाई फुले की जिन्होंने 1848 में पुणे में लड़कियों के लिए पहला स्कूल खोला जिसमे सावित्रीबाई फुले भारत की पहली महिला शिक्षिका बनी।

वो भी उस समय जब लड़कियों का किताब पकड़ना भी बुरी बात समझा जाता था। इनको अपने इन कामो में क्या क्या कठिनाईयां आई और वो कौन सी ऐसी चीज़ें थी जिन्होंने इन दोनों को समाज की इन बुराइयों से लड़ने का हौंसला दिया आइये शुरू से शुरू करते हैं।

ज्योतिराव फुले का शुरुआती जीवन

ज्योतिराव फुले का जन्म महाराष्ट्र के सतारा जिले के कटगुण गाँव में, 11 अप्रैल, 1827 को एक माली (बागवान) परिवार में हुआ था। ये जाति से एक शूद्र थे इनके पिता का नाम गोविंदराव फुले और माता का नाम चिमनाबाई फुले था।

इनका परिवार मुख्य रूप से बागों में फल और सब्जियां उगाने का काम करता था। इनका उपनाम गोरहे था लेकिन उनके पिता के फूल बेचने के कारण इनके परिवार के उपनाम के साथ ‘फुले’ जुड़ गया। बिलकुल उसी तरह जैसे नहर के पास रहने के कारण नेहरू उपनाम पड़ा था।

ज्योतिराव जब नौ महीने के थे तब इनकी माता की मृत्यु हो गई । गरीबी के कारण इनको प्रारम्भिक शिक्षा के बाद स्कूल छोड़ना पड़ा ताकि वो अपने पिता के साथ उनके काम में हाथ बंटा सकें।

परन्तु इनकी तेज बुद्धि होने के कारण, इनके एक पड़ोसी के कहने पर, इनके पिता ने 1841 में ज्योतिराव का दाखिला पुणे के स्कॉटिश मिशन हाई स्कूल में करवा दिया। 1847 में इन्होने अपनी शिक्षा पूरी की। यहाँ पर ज्योतिराव का सदाशिव बल्लाल गोवंडे नाम का एक ब्राह्मण मित्र बना।

ज्योतिराव और सावित्रीबाई फुले का विवाह

बाल विवाह प्रथा के अनुसार इनका विवाह 13 बर्ष की आयु में सावित्रीबाई से कर दिया। जो उस समय 9 बर्ष की थीं। सावित्रीबाई के पिता का नाम खंडोजी नेवसे पाटिल और माता का नाम लक्ष्मीबाई था। सावित्रीबाई का जन्म 3 जनवरी, 1831 को महाराष्ट्र के सतारा जिले के नायगांव नामक गाँव में हुआ था।

ज्योतिराव फुले के जीवन की वो घटना जिसने इनके जीवन की दिशा बदल दी।

ज्योतिबा फुले के जीवन में एक महत्वपूर्ण मोड़ तब आया जब वो अपने एक ब्राह्मण मित्र के विवाह समारोह में शामिल होने के लिए गए थे। वहाँ पर कुछ लोग इनकी पहचान कर लेते हैं कि ये लड़का माली जाति से सम्बन्ध रखता हैं।

इनके बारात में शामिल होने को लेकर इनको, वहां उपस्थित लोगों के द्वारा अपमानित तथा प्रताड़ित किया जाता है। ये इस तरह से अपमानित होने के बाद घर जाकर सारी बात अपने पिता को बताते हैं और ब्राह्मण पेशवाओं के इस तरह के व्यवहार की निंदा करते हैं।

बस यही वो घटना थी जब वो जाति व्यवस्था के खिलाफ आवाज उठाने और जाति प्रथा को चुनौती देने का संकल्प अपने मन में कर लेते हैं।

रूढ़ियों को तोड़ने के लिए शिक्षा को बनाया हथियार

ज्योतिराव फुले, खुद एक पढ़े लिखे व्यक्ति थे इसलिए वो जानते थे कि पुरानी रूढ़ियों को शिक्षा से ही तोड़ा जा सकता है । उस समय, लड़कियों और दलितों के लिए शिक्षा के दरवाजे लगभग बंद थे। उन्होंने पहले अपनी पत्नी सावित्रीबाई फुले को शिक्षित किया।

फिर 1848 में, इन दोनों ने पुणे में लड़कियों के लिए पहला स्कूल खोला। सावित्रीबाई फुले ने तमाम विरोधों और सामाजिक दबावों के बावजूद भारत की पहली महिला शिक्षिका बनने का गौरव हासिल किया।

इन दोनों ने लड़कियों के साथ साथ दलित बच्चों के लिए भी शिक्षा की व्यवस्था की। उनके द्वारा उठाए गए ये कदम उस समय के रूढ़िवादी समाज के लिए एक बड़ी चुनौती थे और इसके लिए उन्हें कड़ी आलोचना और सामाजिक बहिष्कार का भी सामना करना पड़ा।

सावित्रीबाई फुले को पहली महिला शिक्षिका बनते समय किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ा

सावित्रीबाई फुले को समाज की उस सोच को तोड़ना था जो स्त्रियों को घर के अंदर रहने को प्राथमिकता देता था। सावित्रीबाई फुले को किस तरह की दिक्क्तें आई वो इस प्रकार हैं

  • 19वीं सदी में महिलाओं की शिक्षा को समाज में स्वीकार नहीं किया जाता था। जब सावित्रीबाई ने पढ़ना शुरू किया, तो उनके अपने परिवार में उनका विरोध शुरू हो गया । उनके अपने पिता ने उन्हें पढ़ने से मना किया क्योंकि उस समय यह माना जाता था कि शिक्षा केवल उच्च जाति के पुरुषों का अधिकार है।
  • शादी के बाद भी, जब ज्योतिराव फुले ने उन्हें पढ़ाना शुरू किया, तो उन्हें अपने ही घर में विरोध का सामना करना पड़ा। उनके परिवार के सदस्य इस बात के खिलाफ थे कि एक महिला पढ़े और दूसरों को पढ़ाए
  • जब सावित्रीबाई स्कूल जाती थीं, तो लोग उन पर गोबर, पत्थर और कीचड़ फेंकते थे। उन्हें गालियाँ दी जाती थीं और उनका अपमान किया जाता था। सावित्रीबाई को अपने थैले में एक अतिरिक्त साड़ी रखनी पड़ती थी ताकि वो गन्दी साड़ी को बदल सकें।
  • सावित्रीबाई माली जाति से थीं, जिसे उस समय निचली जाति माना जाता था। इस कारण से भी उन्हें उच्च जाति के लोगों के विरोध और भेदभाव का सामना करना पड़ा। उनके द्वारा खोले गए स्कूलों में सभी जातियों के बच्चों को शिक्षा दी जाती थी, जिसका भी कुछ लोगों ने विरोध किया।

ज्योतिराव फुले और सावित्रीबाई फुले की संतान

ज्योतिराव फुले और सावित्रीबाई फुले की अपनी कोई संतान नहीं थी। उन्होंने 1874 में एक ब्राह्मण विधवा से, एक बच्चा गोद लिया था जिसका नाम उन्होंने यशवंतराव रखा था जो बाद में डॉक्टर बने।

उस समय अगर किसी औरत का पति मर जाता था और बच्चा उसके पेट में होता था तो उसे बच्चा पालने का अधिकार नहीं होता था। कहते हैं वो ब्राह्मण विधवा अपना जीवन समाप्त करना चाहती थी जिस पर इस दम्पति ने उसे, उसका बच्चा गोद लेने का आश्वासन दिया था।

ज्योतिराव फुले और सावित्रीबाई फुले का साहित्यिक योगदान

ज्योतिराव फुले और सावित्रीबाई फुले दोनों का भारतीय साहित्य में भी महत्वपूर्ण योगदान रहा। उनके लेखन ने सामाजिक बुराइयों पर प्रकाश डाला और लोगों को जागरूक किया।

ज्योतिराव फुले का साहित्यिक योगदान:

गुलामगिरी (1873): यह उनकी सबसे प्रसिद्ध रचना है, जिसमें उन्होंने जाति व्यवस्था की कड़ी आलोचना की है और शूद्रों और दलितों की दुर्दशा का बर्णन किया है।

शेतकऱ्याचा आसूड (1883): इस पुस्तक में उन्होंने किसानों की समस्याओं, उनके शोषण और गरीबी पर विस्तार से लिखा है।

सार्वजनिक सत्यधर्म पुस्तक: यह पुस्तक उनके सामाजिक और धार्मिक विचारों का संग्रह है।

ब्राह्मणंचे कसब (1869): इस पुस्तिका में उन्होंने ब्राह्मणों के धार्मिक और सामाजिक वर्चस्व की आलोचना की।

तृतीय रत्न (1855): यह एक नाटक है जिसमें उन्होंने बाल विवाह और अन्य सामाजिक बुराइयों पर कटाक्ष किया है।

सावित्रीबाई फुले का साहित्यिक योगदान:

काव्य फुले (1854): यह उनका पहला कविता संग्रह है, जिसमें उन्होंने प्रकृति, शिक्षा और सामाजिक सुधारों पर अपनी भावनाओं को व्यक्त किया है।

बावनकशी सुबोध रत्नाकर (1892): यह उनका दूसरा काव्य संग्रह है, जिसमें विभिन्न सामाजिक और नैतिक विषयों पर उनकी कविताएँ शामिल हैं।

उन्होंने “गो, गेट एजुकेशन” नामक एक प्रसिद्ध कविता भी लिखी, जिसमें उन्होंने दबे-कुचले लोगों को शिक्षा प्राप्त करके खुद को मुक्त करने के लिए प्रोत्साहित किया।

ज्योतिराव फुले और सावित्रीबाई फुले की मृत्यु

1888 में ज्योतिराव फुले को पक्षाघात का दौरा पड़ा जिससे उनका शरीर लकवाग्रस्त हो गया इनकी मृत्यु 28 नवंबर, 1890 को पुणे में हुई। जबकि सावित्रीबाई फुले की मृत्यु 10 मार्च, 1897 को पुणे में प्लेग के कारण हुई।

उस समय प्लेग महामारी फैली हुई थी। सावित्रीबाई फुले के बेटे यशवंतराव फुले ने प्लेग से पीड़ित लोगों की मदद के लिए एक क्लिनिक खोला था। एक दिन, उन्हें पता चला कि मुंडवा के पास महार बस्ती में बाबाजी गायकवाड़ के बेटे को प्लेग हो गया है।

वो उसको अपनी पीठ पर रखकर अस्पताल ले गईं। इस प्रक्रिया में गायकवाड़ का बेटा तो बच गया परन्तु साबित्रीबाई फुले संक्रमित हो गईं और उनकी मृत्यु जो गई।

निष्कर्ष

किसी भी गलत परम्परा के साथ जीना बहुत आसान होता है। कुछ नहीं करना होता बस जो दुनिया कर रही है वही करना है। परन्तु गलत परम्पराओं से टकरा कर ही आने वाली पीढ़ी के लिए एक उचित बाताबरण तयैर किया जा सकता है।

आज जो लड़कियां बिना रोक टोक के स्कूल, कालेजों और विद्यालयों में जा पा रही हैं। महिलाएं बिना रोक टोक के नौकरियों में जा पा रही हैं उनको इन फुले दम्पति का धन्यबाद करना चाहिए। केवल दलित महिलाओं को ही नहीं बल्कि हर समाज की महिलाओं को।

स्त्रियों के स्वर्ण युग की शुरुआत कब हुई पढ़ने के लिए क्लिक करें।