नवरात्री हिन्दू समाज का एक प्रसिद्ध त्यौहार है जो पुरे भारत बर्ष के साथ साथ विश्वभर में जहाँ जहाँ हिन्दू रहते हैं वहाँ वहाँ पुरे हर्षोउल्लास से मनाया जाता है।
नवरात्री एक संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ होता है 9 रातें। नवरात्री का त्यौहार 9 दिनों तक मनाया जाता है।
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Toggleसाल में 4 बार मनाई जाती है नवरात्री
नवरात्री साल में 4 बार मनाई जाती है। चैत्र नवरात्री और शारदीय नवरात्री के आलावा आषाढ़ और पौष महीने में गुप्त नवरात्री मनाई जाती है।
आषाढ़ नवरात्री जून और जुलाई के दौरान तथा पौष नवरात्रि दिसंबर और जनवरी के महीने में मनाई जाती है। गुप्त नवरात्री में माँ दुर्गा की गुप्त साधना की जाती है।
गुप्त नवरात्री में माँ दुर्गा की पूजा साधु संत और सन्यासी करते हैं। जबकि गृहस्थ लोग चैत्र और शारदीय नवरात्री मानते हैं।
इन चारों नवरात्रियों में सबसे खास होती है शारदीय नवरात्री। शारदीय नवरात्री में देश के अलग अलग भागों में माँ दुर्गा की पूजा अलग अलग तरीकों से की जाती है।
उत्तर भारत में नवरात्री के 9 दिनों तक रामलीला का मंचन किया जाता है। जिसमे दस दिनों तक भगवान राम के जीवन काल के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डाला जाता है।
और दसवे दिन रावण के वध के साथ ही दशहरा मनाया जाता है। और रावण, मेघनाथ और कुम्भकर्ण के पुतले जलाये जाते हैं। असम और बंगाल में माँ दुर्गा के आसमान छूटे पंडाल बनाये जाते हैं
बंगाल का सिंदूर खेला पूरी दुनिया में प्रसिद्ध है। गुजरात की नवरात्री वहां के लोकनृत्य गढ़वा और डांडिया के बिना अधूरी होती है।
गुजरात के गढ़वा में शामिल होने के लिए देश के कोने कोने से लोग आते हैं। कर्नाटका के मैसूर में माँ चामुंडेश्वरी देवी को हाथी पर सोने की पालकी पर बैठाया जाता है।
इसके बाद माँ दुर्गा के स्वरूप का पुरे शहर में जलूस निकाला जाता है। भारत के कई मंदिरो में माता की पूजा पिंडी के रूप में की जाती है।
कोलकाता में कैसे मनाई जाती है दुर्गा पूजा
नवरात्री एक ऐसा त्यौहार है जो पुरे भारतबर्ष में तरह अलग अलग तरीके से मनाया जाता है। अगर बात करें कलकत्ता की तो यहाँ पर नवरात्रों में दुर्गा पूजा भारत के अन्य राज्यों की अपेक्षा काफी अलग और भव्य तरीके से की जाती है।
कलकत्ता की दुर्गा पूजा की भव्यता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि यूनेस्को की वर्ल्ड हेरिटेज की लिस्ट में कलकत्ता की दुर्गा पूजा को शामिल किया गया है।
कोलकत्ता की दुर्गा पूजा एक ऐसी संस्कृत विरासत है जो पिछले कई सालों से चली आ रही है। यहाँ की दुर्गा पूजा को देखने के लिए देश ही नहीं बल्कि विदेशों से भी लोग आते हैं।
पूजा के लिए बनाये जाते हैं बड़े बड़े पंडाल
यहाँ पर नवरात्रों के पर्व पर काफी बड़े बड़े पंडाल बनाये जाते हैं। दुर्गा पूजा के कई महीने पहले ही इन पंडालों को बनाने की तयैरी शुरू हो जाती है।
कारीगर दिन रात एक करके इन पंडालों को बनाते हैं। हर साल पंडाल किसी न किसी थीम पर बनाये जाते हैं। कलकत्ता में बनाये जाने बाले कई पंडालों की कीमत करोड़ों रूपये तक होती है।
यहाँ पर कुछ पंडाल तो ऐसे भी होते हैं जिनको बनाने का खर्चा 20 करोड़ रूपये से भी ज्यादा हो जाता है और जिन्हे सिर्फ 9 दिनों के लिए बनाया जाता है।
अकेले कलकत्ता में हर साल 4500 पंडाल बनाये जाते हैं। जहाँ लाखों लोगो को रोजगार मिलता है। ये पंडाल इतने भव्य होते हैं कि अंदर से पुरे राजमहल की तरह प्रतीत होते हैं।
ये पंडाल इतने बड़े बड़े होते हैं कि हजारों लोग इनके अंदर माँ दुर्गा के दर्शन करते हैं। इन ऊँचे ऊँचे पंडालों में माँ दुर्गा की विशाल मूर्तियां स्थापित की जाती हैं। जिनको सोने चांदी के गहनों से सजाया जाता है।
तबायफ के घर की मिटटी की जाती है इस्तेमाल
दुर्गा माता की मूर्तियों को बनाने के लिए पवित्र गंगा नदी की मिटटी का इस्तेमाल किया जाता है। पश्चिमी बंगाल में इन मूर्तियों को बनाने के लिए तबायफ के घर की मिटटी मिलाने की भी परम्परा है।
इस मिटटी के मिले बिना माँ दुर्गा की मूर्ति अधूरी मानी जाती है। कलकत्ता में कई परिवार ऐसे हैं जो सदियों से माँ दुर्गा की मूर्ति बनाने का काम कर रहे हैं।
नवरात्री के दौरान पंडालों में माँ दुर्गा की एक से बढ़कर एक मूर्ति की स्थापना की जाती है। इन मूर्तियों के द्वारा असुरो के साथ माँ दुर्गा की लड़ाई को दिखाया जाता है। कलकत्ता में जयादातर माँ दुर्गा के गुस्से वाले रूप की यानि माँ काली की पूजा की जाती है।
कोलकत्ता का प्रसिद्ध दक्षिणेश्वर मंदिर
कलकत्ता में ही माँ काली का एक बहुत ही प्रसिद्ध दक्षिणेश्वर मंदिर है। नवरात्री के दिनों में माँ काली के इस मंदिर में देश भर से श्रद्धालु आते हैं।
ये जगह माँ सती की 51 शक्तिपीठों में से एक है। माना जाता है कि यहाँ पर माँ सती के बाएं पैर का अंगूठा गिरा था।
कोलकत्ता का प्रसिद्ध कालीघाट काली मंदिर
कलकत्ता में ही कालीघाट काली मंदिर भी है जिसे कालीघाट शक्ति पीठ कहा जाता है। ये मंदिर हुगली नदी के तट पर बना है और ऐसा माना जाता है कि यहाँ पर माँ सती की दाहिने पैर की 4 उँगलियाँ गिरी थी। इसलिए ये मंदिर लोगो की आस्था के केंद्र है।
कोलकाता का सिंदूर खेला खेल
कलकत्ता में दुर्गा पूजा के वाद दशहरे पर खेला जाने वाला सिंदूर खेला भी काफी प्रसिद्ध है। ये यहाँ की संस्कृति की एक पहचान है।
कलकत्ता के लोग माँ दुर्गा को विदाई देने के लिए सिंदूर खेला का खेल खेलते हैं। जिसमे सबसे पहले माँ दुर्गा को लाल रंग का सिंदूर लगाया जाता है।
दोनों हाथों में पान के पत्ते लेकर उसमे सिंदूर लगाया जाता है और फिर यही सिंदूर माँ दुर्गा के गालों और सिर ओर लगाया जाता है।
इसके बाद माँ दुर्गा को पान और मिठाई का भोग लगाया जाता है। और उनसे आशीर्वाद लिया जाता है माता रानी को सिंदूर लगाने के बाद यही सिंदूर सभी औरतों को लगाया जाता है
औरतें एक दूसरे को सिंदूर लगाती हैं और अपने सुहाग की लम्बी उम्र के लिए दुआएं करती हैं। सिंदूर खेला की खासियत ये है कि ये केवल शादीशुदा औरतों के बीच ही खेला जाता है। कुंवारी लड़कियां और विधवा औरतें इसमें हिस्सा नहीं लेती हैं।
कोलकत्ता का धनुचि नृत्य
सिंदूर खेला के बाद औरतें धनुची नृत्य करती हैं। धनुचि नृत्य में पुरष भी भाग लेते हैं। ये एक प्रकार का शक्ति नृत्य है जो माँ भवानी को प्रसन्न करने के लिए किया जाता है।
धनुचि एक मिटटी की हांडी की तरह होती है जिसमे सूखा नारियल, थोड़ी सी हवन सामग्री और कपूर डालकर जलाया जाता है। इसी धनुचि को दोनों हाथों और मुँह में लेकर लोग माँ दुर्गा का शक्ति नृत्य करने लगते हैं।
ये शक्ति नृत्य ढोल और नगाड़ों की थाप पर किया जाता है। पस्चिमी बंगाल में दुर्गा पूजा के साथ साथ सिंदूर खेला और धनुचि नृत्य लगभग पिछले 450 सालो से चलता आ रहा है।
सिंदूर खेला और धनुचि नृत्य के बाद माँ दुर्गा को विदाई दी जाती है। इस दौरान माँ दुर्गा की जिस मूर्ति की पूजा भक्त पिछले 9 दिनों से कर रहे होते हैं उस मूर्ति का विसर्जन कर दिया जाता है।
हँसते गाते और नृत्य करते हुए माँ दुर्गा के भक्त माँ दुर्गा को विदाई देते हैं। इसके लिए कलकत्ता में नदी के किनारे सरकार की तरफ से माँ दुर्गा की पूजा का प्रबंध किया जाता है। जहाँ पर हजारों भक्त माँ दुर्गा को विदाई देते हैं।
माना जा रहा है कि 2030 तक दुर्गा पूजा का बजट कुंभ मेले के बराबर हो जायेगा और इस बजट के लगभग 1 लाख करोड़ रूपये तक पहुँचने का अनुमान है। नवरात्री के दौरान पूरा बंगाल अलग ही रंग में नजर आता है। चारों तरफ माँ भवानी के जयकारे गूंजते हैं।
कोलकत्ता में दुर्गा पूजा की शुरुआत कब हुई
पहली बार 9वी शताब्दी में बंगाल के रघुनन्दन भट्टाचार्य ने सामूहिक दुर्गा पूजा की शुरुआत की थी। जिसमे उस कम्युनिटी के लोग जुड़े और पहली बार दुर्गा पूजा को एक त्यौहार के रूप में मनाया जाता है।
उसके बाद 1576 में पश्चिमी बंगाल की ताहीपुर के एक जमींदार कंश नारायण ने बहुत ही बड़े स्तर पर दुर्गा पूजा का आयोजन किया था। हालाँकि यह एक पारिवारिक समारोह था परन्तु कुछ अन्य लोगो ने भी इसमें भाग लिया था।
दुर्गा पूजा का आयोजन एक खुली जगह पर किया था जिसमे बहुत सारे लोगो ने भाग लिया था। कहा जाता है कंश नारायण के दादा जी “उदय नारायण” माँ दुर्गा के बहुत बड़े भक्त थे।
उन्होंने भी दुर्गा पूजा के कई आयोजन करवाए थे। धीरे धीरे बंगाल के पास सेन वंस के लोगो ने दुर्गा पूजा को बढ़ावा दिया। इसके बाद बहुत बड़े स्तर पर दुर्गा पूजा का आयोजन होने लगा।
16वी शताब्दी में लगभग 1610 में स्वर्णा राय चौधरी के परिवार ने दुर्गा पूजा की शुरुआत की और तब से लेकर अब तक लगभग 410 सालो से ये परिवार दुर्गा पूजा को मनाता आ रहा है।
उस समय कलकत्ता एक शहर न होकर एक छोटा सा गॉव होता था जिसे कोलीकत्ता के नाम से जाना जाता था। ऐसा कहा जाता है कि स्वर्णा राय चौधरी अश्व मेघ यज्ञ का आयोजन करना चाहते थे तो वहां के पुरोहितों ने उन्हें दुर्गा पूजा के महत्व के बारे में बताया। और तब उन्होंने दुर्गा पूजा का भव्य आयोजन करवाया। तब से ये परिवार दुर्गा पूजा करता आ रहा है।
शोभा बाजार “रजवाड़ी” में 1757 में हुई थी नवरात्रों की शुरुआत
कलकत्ता के शोभा बाजार “रजवाड़ी में नवाकृष्ण देव ने साल 1757 में नवरात्री पूजा की शुरुआत की थी। उनकी दुर्गा पूजा में अंग्रेज भी शामिल होते थे।
लेकिन ये आयोजन निजी तौर पर किया जाता था। पश्चिमी बंगाल के गुप्तिपाड़ा हुगली में 1790 ईस्वी में सामूहिक तौर पर दुर्गा पूजा की शुरुआत हुई थी पहले राजा और उनके खानदान में ही दुर्गा पूजा का आयोजन होता था।
बरोबरी संगठन की शुरुआत
कहा जाता है कुछ ब्राहम्णों को दुर्गा पूजा में सम्मिलित होने से रोक दिया गया था। उसके बाद उन 12 ब्राहम्णो ने संगठन बनाकर सामूहिक रूप से दुर्गा पूजा का आयोजन किया था।
इस संगठन का नाम था बरोबरी संगठन । आज भी ये बरोबरी संगठन पश्चिमी बंगाल में उसी तरह से काम कर रही है।
साल 1909 में कोलकाता के भवानीपुर में बरोबरी दुर्गा पूजा का आयोजन किया गया। जिसमे श्री अरविन्दु ने बंगाली में दुर्गा स्त्रोत का पाठ किया था।
ये दुर्गा पूजा भवानीपुर सनातन धर्मोत्साहिनी सभा की तरफ से आयोजित की गई थी। आज कोलकाता में 2000 से अधिक पंडालों में बरोबरी दुर्गा पूजा की जाती है। बरोबरी के धार्मिक सार्वजनिक संगठन है जो पश्चिमी बंगाल में दुर्गा पूजा का आयोजन करवाती है।
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