डॉक्टर भीम राव आंबेडकर जी ने कहा था अगर किसी समाज के विकास के बारे में जानना हो तो उस समाज की स्त्रियों की स्थिति देखो।
हमारे समाज में स्त्रियों को केवल पुरुषों के खालीपन को भरने का एक जरिया माना जाता था। इनकी अपनी कोई पहचान नहीं थी न ही कोई फाइनेंसियल सिक्योरिटी थी। महिलाओं का कई तरीकों से शोषण किया जाता था।
सती प्रथा के तहत उनको अपने मरे हुए पति के साथ जिन्दा जला दिया जाता था। परन्तु अगर किसी मर्द की पत्नी की मृत्यु हो जाती थी तो वो दूसरी शादी कर लेता था।
धर्म और परम्परा के नाम पर स्त्रियों की बलि दे दी जाती थी। उन्हें कई अधिकारों से बंचित रखा जाता था।
अगर किसी के पति की मृत्यु हो जाती थी तो पिता पक्ष के लोग उसको साल भर के खाने पीने के लिए राशन देकर जाते थे क्यूंकि सम्पति कभी भी महिलाओं के नाम पर ट्रांसफर नहीं होती थी।
अगर किसी की संतान न भी हो तो वारिस वही होता था जिसने मरने वाले का पिंड दान और श्राद्ध किया हो।
इस प्रकार अगर किसी के पति की मृत्यु हो जाती थी तो वो दर दर की ठोकरें खाने को मजबूर हो जाती थी। उसको पैतृक सम्पति में भी कोई अधिकार नहीं मिलता था।
पति धर्मशास्त्र मनुस्मृति के अनुसार जब चाहे अपनी पत्नी का परित्याग कर सकता था और दूसरी पत्नी घर ला सकता था।
इस तरह के माहौल में हिन्दू कोड बिल 1956 स्त्रियों और समाज के विकास के लिए मील का पत्थर साबित हुआ।
हिन्दू कोड बिल के अंतर्गत कुछ ऐसे कानून आते हैं जिनमे सदियों से चले आ रहे हिन्दू पर्सनल लॉ में संसोधन करने और उन्हें कोडिफाई करने के लिए बनाया गया था।
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हिंदू कोड बिल में कितने कानून है?
हिन्दू कोड बिल मुख्य रूप से 4 प्रावधान थे
- हिन्दू मैरिज एक्ट (हिन्दू विवाह अधिनियम)
- हिन्दू सक्सेसन एक्ट (हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम)
- हिन्दू माइनॉरिटी एंड गार्डियनशिप एक्ट ( hindu minority and guardianship act)
- हिन्दू एडॉप्शन एंड मैंटेनस एक्ट (हिन्दू दत्तक तथा भरण-पोषण अधिनियम
किस किस कम्युनिटी पर हिन्दू कोड बिल लागु हुआ था
डॉक्टर भीम राव आंबेडकर ने कहा था कि कोई भी जो मुसलमान, ईसाई, पारसी और यहूदी नहीं है वो हिन्दू है और उन पर ये हिन्दू कोड बिल लागु होगा। जैन ,सिख और बौद्धों को भी हिन्दू कोड बिल के अंतरगर्त हिन्दू माना गया था।
हिन्दू कोड बिल के आने से पहले कैसा चलता था भारत का कानून
इन चारों एक्ट के आने से पहले हिन्दू समाज हिन्दू शास्त्रों के हिसाब से चल रहा था और शास्त्रों के हिसाब से हिन्दू समाज में स्त्रियों की दशा शोचनीय थी।
आजादी से पहले हमारे देश में अलग अलग धर्मो के अलग अलग कानून (पर्सनल लॉ) थे। ये सभी कानून ज्यादातर धार्मिक ग्रंथों पर आधारित थे। हिन्दू पर्सनल लॉ मनुस्मृति और धर्म शास्त्रों पर आधारित था।
इन्ही धर्म ग्रंथों में लिखे नियमों के आधार पर हिन्दू लोग विवाह, तलाक, जमीन जायदात, पुत्र गोद लेना, विरासत जैसे मामले केवल पंचायत या कास्ट काउंसिल में ही निपटा लिया करते थे। और सरकार का इन मामलो में कोई हस्तक्षेप नहीं होता था।
हिन्दू पर्सनल लॉ में तलाक का कोई प्रावधान नहीं था। पति के द्वारा पत्नी का परित्याग कर दिए जाने पर उस औरत की स्थिति काफी ख़राब हो जाती थी।
पिता की सम्पति में भी उसे कोई हिस्सा नहीं मिलता था। औरतों के नाम जमीन तो होती नहीं थी तो पति के मरने के बाद अगर किसी औरत का बेटा उसे घर से बाहर निकाल देता था वो दर दर की ठोकरें खाने को मजबूर होती थी।
हिन्दू धर्म, संस्कृति और परम्पराओं के नाम पर उसे रूढीबादी रीति रिबाजों और प्रथाओं को निभाने के लिए मजबूर किया जाता है।
हिन्दू धर्म के अनुसार पुरुष कई शादियां कर सकते थे। लेकिन स्त्रियों के पास पति के मरने के बाद भी दोवारा शादी करने का विकल्प नहीं था। उनके पास पढ़ने लिखने का अधिकार नहीं था।
बचपन में ही उनका विवाह उनसे दुगुनी उम्र के मर्द के साथ कर दिया जाता था। विधवा होने पर उन्हें रंगीन कपड़े और गहने पहनने का अधिकार नहीं होता था।
उनका सिर मुंडा दिया जाता था। उन्हें एक ऐसा जीवन जीने के लिए मजबूर किया जाता था जिसके नाम पर वो केवल सांसे लेती थी। कई कई समुदायों में तो उनको उनके पति के साथ जिन्दा जला दिया जाता था।
1948 में बाबा भीम राव आंबेडकर ने हिन्दू कोड बिल का पहला ड्राफ्ट संबिधान सभा में पेश किया। इस ड्राफ्ट का बुनियादी ढांचा (basic structure) बाबा से पहले हिन्दू लॉ कमेटी ने तयैर किया था।
हिन्दू मैरिज एक्ट को जानने का सबसे अच्छा तरीका 7 पहलुओं को जानना और समझना है जो इस प्रकार हैं
- मैरिज
- सक्सेशन
- एडॉप्शन
- माइनॉरिटी
- गारडियनशिप
- डाइवोर्स
- मेंटेनेंस
सबसे पहले बात करते हैं मैरिज एक्ट पर
हिन्दू कोड बिल का सबसे बड़ा हिस्सा मैरिज के कानून पर आधारित है। विवाह को क़ानूनी तौर पर परिभाषित करना मुश्किल था।
हिन्दू विवाह धर्म शास्त्रों के अनुसार होते थे और धर्म शास्त्रों के अनुसार केवल उन्ही विवाहों को विवाह के रूप में स्वीकार किया जाता था जो पूरे रीति रिवाज और संस्कारों के साथ किये जाते थे। एक ही गोत्र और खून के रिश्तों में विवाह नहीं होते थे।
अंतरजातीय विवाह(inter caste marriage) भी बर्जित थी। कुछ विशेष परिस्थितियों में अनुलोम विवाह हो जाते थे परन्तु प्रतिलोम विवाह को अच्छी दृस्टि से नहीं देखा जाता था।
अनुलोम विवाह वो विवाह होते थे जिनमे लड़का उच्च कुल का होता था और प्रतिलोम विवाह वो विवाह होते थे जिनमे लड़की उच्च कुल की होती थी।
हिन्दू कोड बिल ने दो तरह के विवाह को परिभाषित किया।
- पहला था परम्परागत तरीके से किया गया विवाह(Sacramental Marriage) और
- दूसरा था कोर्ट में किया गया विवाह(Civil Marriage)
हिन्दू कोड बिल आने के बाद कोर्ट में इंटरकास्ट मैरिज और एक ही गोत्र में शादी भी बैध माना जाने लगा ।
अत: अब सिविल मैरिज में किसी भी गोत्र और जाति में शादी की जा सकती थी और क़ानूनी तौर पर उसे वैध माना जाने लगा।
सिविल मैरिज का एक और लाभ ये था कि इस तरह हुए विवाह में तलाक़ भी आसानी से मिल जाता था जो कि परम्परागत हिन्दू विवाह में मान्य ही नहीं था।
लेकिन जिस परम्परागत हिन्दू मैरिज की बात हिन्दू कोड बिल में की गई थी उसमे कोई भी विवाहित हिन्दू सिविल मैरिज के तहत अपने विवाह को रजिस्टर करवा सकता था और जरुरत पड़ने पर तलाक़ भी मांग सकता था।
उस समय तक बॉम्बे, मद्रास, बड़ोदा और सौराष्ट्र के अलावा इंडिया में कहीं भी तलाक़ का कानून नहीं था।
ऐसे में हिन्दू कोड बिल का आना हिन्दू सामाजिक व्यवस्था की नीव को हिलने वाला था। ऊपर से सिविल मैरिज,विवाह करने वाले दो लोगो की जाति और गोत्र को पूरी तरह से ख़ारिज करती थी।
इसके अलावा हिन्दू कोड बिल में बहु विवाह जिसमे एक पुरुष एक से ज्यादा औरतों से विवाह करता है, उसके ऊपर पावंदी लगाने की बात भी उठाई गई। और इसके अनुसार किसी भी पुरुष या औरत को तलाक़ लेने का अधिकार था।
नपुंसकता, खून के रिस्तो में विवाह,दोनों में से किसी एक का पागल होना, जबरदस्ती की शादी या गौरडिअन की सहमति से हुई शादी में कोई भी हिन्दू, कोर्ट जाकर तलाक़ की मांग कर सकता था।
हिन्दू सक्सेशन एक्ट (विरासत पर हिन्दू कोड बिल)
विरासत यानि पैतृक सम्पति पर हिन्दू कोड बिल को समझने के लिए दो कानून को समझना बहुत जरुरी है
- मिताक्षरा लॉ
- दया भाग लॉ
हिन्दुओं के सम्पति सबंधी मामलो को निपटाने के लिए इन्ही 2 कानूनों का इस्तेमाल किया जाता है।
आसाम और उड़ीसा को छोड़कर भारत के जयादातर हिस्सों में मिताक्षरा लॉ ही लागु होता है। हिन्दू कोड बिल आने से पहले मिताक्षरा और दया भाग में सम्पति और विरासत को लेकर अलग अलग नियम थे।
जैसे सयुंक्त परिवार के मामले में सयुंक्त परिवार के प्रत्येक सदस्य का सयुंक्त परिवार की सम्पति में जन्म से ही अधिकार हो जाता था।
लेकिन किसी भी महिला का उस सम्पति में कोई हिस्सा नहीं होता था। परिवार के एक पुरुष सदस्य के मरने पर सम्पति परिवार के दूसरे पुरुष सदस्य के नाम पर हो जाती थी
लेकिन दया भाग कानून में ऐसा नहीं था इसके अनुसार सयुंक्त परिवार के किसी भी सदस्य का सम्पति पर जन्म से अधिकार नहीं होता था।
इस पर अधिकार विरासत में या मरने वाले की बसीयत के अनुसार मिलता था। इसमें हिस्सा पाने वाले पुरुष सदस्य की मृत्य पर उसका हिस्सा उसकी विधवा पत्नी के नाम पर हो जाता था।
और Coparcener यानि( हमवारिस) जो एक सम्पति को शेयर करते हों उस केस में, मिताक्षरा कानून के हिसाब से एक पैतृक सम्पति पर जन्म से ही बेटे का भी उतना ही हक़ होता है जितना उसके बाप का।
यानी दादा की सम्पति में एक पोते का भी उतना ही हक़ होगा जितना उसके पिता का।
लेकिन दया भाग में सम्पति पर जन्म से अधिकार नहीं मिलता और पिता के मरने पर ही बेटे का अधिकार पैतृक सम्पति पर हो सकता है।
मिताक्षरा में सम्पति को एक यूनिट के रूप में देखा जाता था और उसमे किसी का भी शेयर निश्चित नहीं होता था लेकिन उस सम्पति पर सबका मालिकाना हक़ रहता था। वहीँ दया भाग में शेयर पहले से ही निर्धारित होते थे।
मिताक्षरा में कोई अपना शेयर किसी को ट्रांसफर नहीं कर सकता था जबकि दया भाग में ऐसी कोई पावंदी नहीं थी और उत्तराधिकार के मामले में मिताक्षरा किसी मृत व्यक्ति की सम्पति को दो तरीके से देखता था।
- एक पैतृक सम्पति(Ancestral property) : ये वो सम्पति होती थी जो पूर्बजों द्वारा खरीदी हुई होती थी।
- और दूसरा (Separate property) अलग सम्पति। : ये वो सम्पति होती थी जो उस व्यक्ति ने खुद खरीदी होती थी।
पैतृक सम्पति के मामलों में परिवार के सब सदस्यों का सम्पति पर संयुक्त स्वामित्व होता था। और जीवित रहने के नियम अनुसार केवल आखिरी सदस्य ही उस सम्पति का पूर्ण अधिकार प्राप्त कर सकता था।
और अलग सम्पति के मामलों में, सम्पति मरने वाले के सभी वारिसों में बाँट दी जाती थी।
वहीँ दयाभाग में 2 तरह की सम्पति मानी जाती है
- सयुंक्त सम्पति और
- दूसरी अलग सम्पति
इसमें दोनों तरह की सम्पतियों को मरने वाले के वारिसों में बाँट दिया जाता था।
बारिस किसको माना जाता था
मिताक्षरा में कोई करीबी वारिस या करीबी रिस्तेदार न होने पर भी, मरने वाले के पत्नी को कोई हिस्सा नहीं मिलता था।
लेकिन दयाभाग में सयुंक्त सम्पति के मामले में कोई और वारिस न होने पर मरने वाले की पत्नी को उसका हिस्सा मिल तो जाता था मगर वो उसे किसी और के नाम नहीं कर सकती थी।
मिताक्षरा के हिसाब से केवल खून के रिश्तों में ही सम्पति को ट्रांसफर किया जा सकता है। लेकिन दयाभाग में वारिस वही होता था जिसने मरने वाले का पिंड दान और श्राद्ध किया हो।
हिन्दू सक्सेशन एक्ट के बाद क्या बदलाब आये
हिन्दू कोड बिल ने ये परिभाषित किया कि अगर कोई बिना बसीयत बनाये इस दुनिया से चला जाता है तो उन मामलो में सबका शेयर डिफाइन हो
और हर किसी को अपने हिस्से पर पूर्ण अधिकार मिले ताकि जरुरत पड़ने पर वो अपने हिस्से को बेच सके। या वो जो चाहे उसके साथ कर सके।
इसके अलावा हिन्दू कोड बिल के हिसाब से एक मृत व्यक्ति की सम्पति में उसको विधवा पत्नी,बेटी और विधवा बहु का बराबर अधिकार होता था। और हिन्दू कोड बिल के हिसाब से स्त्रियों के पास केवल 2 ही तरह की सम्पति होती थी
- एक स्त्री धन
- और दूसरी वो जो उसके पति के मरने के बाद उसे प्राप्त हुई होती थी।
स्त्री धन में वो सब चीज़ें शामिल थी जो एक स्त्री को नकद, जेवर या किसी सम्पति के रूप में शादी से पहले, शादी के समय या शादी के बाद किसी भी अवसर जैसे बच्चा पैदा होने पर उसे स्वेच्छा पर दी जाती थी
और सब चीज़ें लड़की के दहेज़ से अलग होती थी जिस पर केवल लड़की का अधिकार होता था।
हिन्दू कोड बिल ने सबसे पहले पहले तो बेटियों को भी पिता का सम्पति में बेटे के बराबर हिस्सा देने और उस पर पूर्ण अधिकार देने की बात की।
और फिर लैंगिक समानता को बढ़ावा देने के लिए स्त्री धन में भी बेटे को बराबर हिस्सा देने पर जोर दिया।
हमारे शास्त्रों के हिसाब से बेटी का अपने पिता की सम्पति में 1/4 हिस्सा होता था मगर ये नियम कोई निभाता नहीं था।
लेकिन हिन्दू कोड बिल ने बेटियों के इस शेयर को पिता की सम्पति में एक बेटे के बराबर बदल दिया था। और दहेज़ के मामले में भी हिन्दू कोड बिल में एक प्रावधान था
लड़की के 18 साल तक के होने तक शादी में मिले दहेज़ को ट्रस्ट की सम्पति माना जायेगा ताकि कोई भी फिर चाहे उसका पति हो या कोई और सम्बन्धी वो उसकी परस्थिति का फायदा न उठा सके
सन 2005 में इस हिन्दू सक्सेशन एक्ट में एक बार फिर संशोधन हुआ
हिन्दू सक्सेशन एक्ट अपना जेंडर जस्टिस पूरा नहीं कर पाया क्यूंकि इस कानून ने खरीदी गई सम्पति पर तो पत्नी, बहु और बेटियों को तो हिस्सा दिया लेकिन पैतृक और सयुंक्त सम्पति को केवल बेटो तक ही सीमित रखा।
अविवाहित लड़कियां, विधवा औरतें उस सम्पति पर रह सकती थी परन्तु उसमे अपना हिस्सा नहीं मांग सकती थी।
और अगर मरने से पहले कोई व्यक्ति अपनी खरीदी हुई सम्पति को भी सयुंक्त सम्पति में बदल देता था तो फिर उस पर बेटी का कोई अधिकार नहीं रह जाता था।
सन 2005 में इस बिल में एक बार फिर संशोधन हुआ जिसके बाद बेटियों को भी सयुंक्त सम्पति और पैतृक सम्पति पर बेटो के बराबर हिस्सा मिलना शुरू हो गया।
क्या कहता था हिन्दू एडॉप्शन एक्ट
हिन्दू कोड बिल में एडॉप्शन को लेकर भी कई सारे कानून थे जैसे इसने अंतर्जातीय गोद लेने की अनुमति दे दी थी
लेकिन एक गोद लिया हुआ पुत्र अपनी विधवा माँ को कभी भी उसके गुजर चुके पति की सम्पति से बेदखल नहीं कर सकता था।
यही नहीं अगर उसकी माँ उसे गोद लेने से पहले अगर वो अपने पति की सम्पति में से कुछ हिस्सा किसी को ट्रांसफर करती है, बेचती है या किसी को उपहार में देती है
तो भी गोद लिए हुए बच्चे को इसे चैलेंज करने का अधिकार नहीं होता।
ये नियम एक विधवा को उसके पति की सम्पति पर पूर्ण अधिकार दिलवाता। ये हिन्दू कोड बिल के पहले ड्राफ्ट के मुख्य बिंदु थे
जिन्हे बाबा भीम राव आंबेडकर ने संबिधान में पेश करते हुए भारतीय समाज के विकास के लिए महत्वपूर्ण बताया
इस प्रकार हिन्दू कोड बिल लैंगिक समानता, महिला विकास, सामाजिक न्याय और हिन्दू समाज के आधुनिकरण के लिए था।
हिन्दू एडॉप्शन और मेंटेनेंस एक्ट 1956
हिन्दू कोड बिल का एक और अधिनियम है हिन्दू एडॉप्शन और मेंटेनेंस एक्ट। इस एक्ट में एक वयस्क हिन्दू द्वारा उसके गोद लिए हुए बच्चे से सबंधित कानून आते हैं।
ये बच्चा लड़का या लड़की कोई भी हो सकता है। जो व्यक्ति बच्चा गोद ले रहा है वो उसका लालन पालन करने में आर्थिक रूप से सक्षम होना चाहिए।
एक अविवाहित परिवार बच्चा गोद ले सकता था परन्तु एक विवाहित परिवार के मामले में पति और पत्नी दोनों की सहमति आवश्य्क थी।
अगर गोद लेने वाले की एक से अधिक पत्नियां हैं तो क़ानूनी रूप से बच्चे की माँ का दर्जा उसकी पहली पत्नी को मिलेगा।
वैसे तो उस समय बहु विवाह पर रोक लग गई थी परन्तु चूँकि ये कानून अभी पास ही हुआ था इसलिए अधिकतर घरों में उस समय एक से अधिक पत्नियां ही थी।
इस एक्ट का दूसरा हिस्सा है मेंटेनेंस
इस कानून में एक हिन्दू अपने परिवार के विभिन्न सदस्यों जैसे पत्नी, माता पिता, और ससुराल को मेंटेनेंस यानि उनके खाने पीने का खर्च देने के लिए क़ानूनी रूप से बाध्य है।
अगर कोई भी हिन्दू अपनी पत्नी को तलाक़ देता है तो उसे उसके रहने सहने और खाने पीने का खर्च देना होगा।
गार्डियनशिप एंड माइनॉरिटी एक्ट 1956
1956 से पहले इस कानून के बनने से पहले शास्त्रों द्वारा बनाये गए कानून लागु होते थे जिसमे एक माता के पास बच्चे के सरक्षण के कोई अधिकार नहीं होते थे
वैसे तो 1956 में इस बिल के बन जाने के बाद भी बच्चे का सरक्षण पिता के पास ही रहा
लेकिन अगर पिता असमर्थ है तो कोर्ट के पास ये अधिकार था कि वो माता को भी बच्चे का सरक्षंक बना सकती थी
और अगर बचे की उम्र 5 साल से कम है तो उसका सरक्षण उसकी माता के पास ही रहेगा।
संक्षेपण
कोई बिल जब किसी समाज की बेहतरी के लिए लाया जाता है तो वो एकदम से लागु नहीं होता क्यूंकि उस समय का समाज उसे स्वीकार नहीं कर पाता
और नई चीज़ पर अपना विरोध दर्ज जरूर करवाता है लेकिन जब उसके बाद की दूसरी या तीसरी पीड़ी बड़ी में उस बिल को आसानी से स्वीकार कर लिया जाता है
क्यूंकि उस पीड़ी को पता नहीं होता कि इस बिल से पहले समाज कैसे चलता था ऐसा ही कुछ इस हिन्दू कोड बिल के साथ हुआ।
इस बिल को इस समय पूरी तरह से स्वीकार कर लिया जा चूका है और हिन्दू कोड बिल ने इस बिल के साथ जीना सीख लिया है।
जिस प्रकार इस समय यूनिफार्म सिविल कोड को लेकर अल्पसंख्यक समाज डरा हुआ उसी प्रकार 1950-1960 में हिन्दू समाज भी इस बिल से पूरी तरह डरा हुआ था।