गुरु गोबिंद सिंह जी ने 5 प्यारों को दीक्षित किया था परन्तु पंज प्यारों को दीक्षित करने की ज़रूरत क्यों पड़ी और ये पंज प्यारे कौन थे और किस किस जाति से सम्बन्ध रखते थे ये जानने के लिए हमें इतिहास में थोड़ा पीछे चलना पड़ेगा।

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नाम जन्म स्थानपरिवारपितामातादीक्षाजन्मशहीदी
भाई दया रामलाहौरखत्री वंशसुधामाई दयाली169916611708
भाई धर्म सिंहमेरठजाट वंशसंत राममाई साभो169916661708
भाई हिम्मत सिंहजगन्नाथ पुरीझीउर वंशगुलजारीमाई धनु169916611705
भाई मोहकमचंद सिंहद्वारकाछिम्बा वंशतीरथ चंददेवी बाई169916631705
भाई साहिब सिंहबीदर (कर्नाटक)नाई वंशभाई गुरु नारायणअकंपा बाई169916621705
पंज प्यारो की सम्पूर्ण जानकारी

मुगल सम्राट जहाँगीर ने सिख लोगो पर भयानक अत्याचार किये। इस कारण सिखों ने अपने आपको एक सैनिक शक्ति के रूप में संगठित किया। जहांगीर के बाद औरंगजेव ने जहांगीर से भी ज्यादा क्रूरता की नीति अपनाई।

इस तरह सिख पंथ जो कि एक धार्मिक समुदाय कहलाता था उसने अपने आपको एक सैनिक शक्ति के रूप में भी संगठित कर लिया। औरंगजेव ने सिखों के पांचवे गुरु को दिल्ली बुलाकर उनका कत्ल कर दिया।

श्री गुरु गोबिंद सिंह जी का जन्म कब हुआ

गुरु गोबिंद सिंह जी का जन्म 22 दिसम्बर 1666 को पटना में नौवें सिख गुरु श्री गुरु तेग बहादुर जी और माता गुजरी के घर हुआ था। जब गुरु तेगबहादुर ई.1666 में पटना नगर में पहुंचे तब वहीं पटना में ही गोविन्दसिंह का जन्म हुआ।

इतिहास का वो समय जब बिहारी होना एक सम्मान की बात थी पढ़ने के लिए क्लिक करें

गुरु तेगबहादुर लगभग पाँच वर्ष तक पटना में रहे और वहीँ पर रहकर अपने धर्म का प्रचार करते रहे। इसके बाद वो आनन्दपुर आए और यहाँ उन्होंने अपना डेरा लगाया। जब गोविंदसिंह जी छः वर्ष के हुए तो पिता तेगबहादुर ने उनकी शिक्षा-दीक्षा का प्रबंध किया।

गुरु गोबिंद सिंह ने सिख पंथ को एक नई दिशा दी

गुरु गोबिंद सिंह जी ने सिक्ख समुदाय को अनुशासन और सिख धर्म के प्रति पूर्ण निष्ठा में बांध दिया। गोबिंद सिंह जी जैसी सफलता इस संसार में विरले ही प्राप्त कर पाए हैं। उन्होंने खालसा पंत की नीव रखी उन्होंने न केवल सिख पंत को एक नई दिशा दी बल्कि सिख पंत को एक कभी न दिखने वाली अटूट डोर से बांध दिया।

जब गुरु तेगबहादुर जी शहीद हुए तो गुरु गोविन्द सिंह जी केवल नौ वर्ष के थे गुरु गोविन्द सिंह जी ने सिखों के दसवें गुरु की उपाधि धारण की। जब उन्होंने देखा कि मुगलों के विरुद्ध युद्ध जरुरी है और बिना युद्ध के मुगलों से बचना असम्भव है तो उन्होंने पुरे सिख समुदाय को एक सैनिक समुदाय में परवर्तित कर दिया।

आनंदपुर साहब को गतिविधियों का केंद्र बनाया

गुरु गोविंदसिंह ने अपने अभियानो की शुरुआत आनंदपुर से की जहाँ आज भी गुरु गोबिंद सिंह जी के नाम से बैसाखी के मेले का आयोजन होता है । गुरु गोविन्द सिंह ने आनन्दपुर के पास चार किले बनवाये-

  • आनन्दगढ़
  • केशगढ़
  • लौहगढ़
  • फतेहगढ़।

गुरु गोबिंद सिंह और मुगलों के बीच नादौन का युद्ध

1690 के दशक में मुग़ल बादशाह, औरंगज़ेब के दक्कन में अभियानों ने मुग़ल साम्राज्य पर काफी प्रभाब डाला था। परिणामस्वरूप, औरंगज़ेब ने शिवालिक पहाड़ियों के शासकों से वार्षिक कर वसूलने के आदेश जारी किए।

लेकिन कुछ लोग कर नहीं दे रहे थे । इसलिए अलिफ खान को कांगड़ा और आसपास की रियासतों से बकाया वसूलने की जिम्मेदारी दी गई थी।

कांगड़ा का राजा और एक अन्य सरदार जिसे राजा दयाल कहा जाता है, ने अलिफ खान की माँगों को पूरा किया। लेकिन कहलूर (बिलासपुर) के राजा भीम चंद ने कर देने से इनकार कर दिया

और मुगलों के विरोध में अन्य सरदारों के साथ गठबंधन किया। गुरु गोविंद सिंह ने भी राजा भीम चंद का समर्थन करने का फैसला किया।

नादौन में एक लड़ाई में अलिफ खान की मुगल सेना और उनके सहयोगी हार गए थे। लड़ाई की तारीख अलग-अलग लेखकों द्वारा अलग-अलग दी गई है, जैसे कि 1687, 1689, 1690, 20 मार्च 1691, और 1691।

लड़ाई खत्म होने के बाद, गुरु गोबिंद सिंह आनंदपुर लौटने से पहले, नौ दिनों तक नादौन में रहे। बाद में महाराजा रणजीत सिंह ने उस जगह पर एक गुरुद्वारा बनवाया, जहाँ गुरु ने अपना तम्बू खड़ा किया था।

गुरु जी के पंज प्यारे कौन थे |5 pyare name in hindi

गुरु गोबिंद सिंह जी ने कुछ समर्पित एवं विश्वसनीय लोगों का एक समूह बनाने का निश्चय किया । इसके लिए उन्होंने एक योजना बनाई। उन्होंने बैसाखी के पावन अवसर पर पंजाब क्षेत्र में फैले सभी लोगों को आमंत्रित किया ।

गुरु के बुलाने पर सिखों के साथ साथ बड़ी संख्या में हिन्दू भी मेले में भाग लेने के लिए आये । गुरु गोविन्दसिंह ने एक बड़े चबूतरे पर चारों ओर से तम्बू खड़ा करवाकर उसके अंदर बकरे बाँध दिए।

उन्होंने चबुतरे पर खड़े होकर सब लोगो को कहा धर्म की रक्षा के लिए महाचण्डी आपका बलिदान चाहती है। तो जो भी बलिदान का इच्छुक हो वो सवेच्छा से आगे आये ।

गुरु के मुख से ऐसे बचन सुनने के बाद वहाँ बैठे हुए लोगो में से निकलकर एक आदमी आगे आया। गोबिंद सिंह जी उसे लेकर तम्बू में गए और उन्होंने उस व्यक्ति को तम्बू के अंदर एक तरफ बैठा दिया और एक बकरे की गर्दन काट दी ।

उसके बाद गुरू जी लहू से सनी हुई तलबार को लेकर वहां बैठे हुए लोगो के सामने आये। तथा उन्होंने किसी दूसरे व्यक्ति को बलिदान देने के लिए आगे आने को कहा । और इस प्रकार एक-एक करके पाँच लोग सामने आए।

इनमें दिल्ली का धर्मदास जाट,लाहौर का दयाराम खत्री, जगन्नाथ का हिम्मत भीवर, द्वारका का मोहकमचंद दर्जी एवं बीदर का साहबचंद नाई शामिल थे।

जब गुरु ने फिर से बलिदान के लिए लोगो को पुकारा तो कोई भी व्यक्ति अपने बलिदान के लिए आगे नहीं आया । इस पर गुरु ने उन पाँच वीरों को तम्बू से बाहर निकाला और कहा- ये ‘पाँच प्यारे’ धर्म के शुद्ध सेवक हैं और इन्हें साथ लेकर मैं आज से ‘खालसा-धर्म’ की नींव डालता हूँ।

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नाम जन्म स्थानपरिवारपितामातादीक्षाजन्मशहीदी
भाई दया रामलाहौरखत्री वंशसुधामाई दयाली169916611708
भाई धर्म सिंहमेरठजाट वंशसंत राममाई साभो169916661708
भाई हिम्मत सिंहजगन्नाथ पुरीझीउर वंशगुलजारीमाई धनु169916611705
भाई मोहकमचंद सिंहद्वारकाछिम्बा वंशतीरथ चंददेवी बाई169916631705
भाई साहिब सिंहबीदर (कर्नाटक)नाई वंशभाई गुरु नारायणअकंपा बाई169916621705
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5 प्यारों का अमृत छकना |सिखों के अमृत छकने की शुरुआत |

उसी समय इन पंज प्यारों को अमृत छकाया गया अमृत छकाने के लिए उन्होंने एक कड़ाह में पवित्र जल भरवाया। उनकी धर्मपत्नी ने उसमें कुछ बताशे घोले और गुरु ने तलवार से उस जल को हिलाया और तलवार से उस जल को पाँच प्यारों पर छिड़का।

इस तरह से इस प्रक्रिया को ‘अमृत छकने’ की नाम दिया गया । गुरुजी ने इस अमृत को वहाँ उपस्थित सभी लोगों में बाँट दिया। इस पवित्र जल को पीकर गुरु गोबिंदसिंह जी के अनुयाई खालसा-धर्म में दीक्षित हुए। इस प्रकार गुरु गोविंदसिंह जी ने खालसा पंथ की स्थापना की।

बर्तमान में सिख-धर्म काफी अंशों में गुरु गोबिंद सिंह जी की दी हुई शिक्षाओं द्वारा ही दीक्षित है । उन्होंने सिक्खों में पगड़ी बाँधने को तथा पंच-ककारों को धारण करना अनिवार्य बनाया।

‘पंज ककार जो की पंजाबी शब्द है अर्थात 5 चीज़ें जो अक्षर “क” से शुरू होती हैं जो इस प्रकार हैं

  • कंघी-
  • कच्छ-
  • कड़ा-
  • कृपाण-
  • केश –

गुरु गोविन्दसिंह ने सिक्ख पंथ में मदिरा और तम्बाकू सेवन को वर्जित किया। सिखों के लिए जिन भी चीज़ो को बर्जित किया गया उनका उल्लेख रहतनामा नामक ग्रंथ में मिलता है।

बजीर खान ने गुरु गोबिंद सिंह के दो पुत्रों जोरावर सिंह और फतेहसिंह को जिन्दा दीवारों में चुनवा दिया।

औरंगजेब ने सरहिन्द के सूबेदार वजीरखाँ को आदेश किया कि वह आनन्दपुर पर हमला करके गुरु गोविंदसिंह को समाप्त कर दे। गुरु के शिष्यों ने तलवार और भाले लेकर मुगलों का सामना किया किंतु मुगलों की इतनी बड़ी सेना का मुकाबला वो अधिक समय तक नहीं कर पाए ।

इस प्रकार गुरु अपने शिष्यों के साथ आनंदपुर से निकल गए। परन्तु इस युद्ध और यहाँ से जल्दी जल्दी निकलने की अफरा-तफरी में उनके दो पुत्र जोरावर सिंह और फतेहसिंह उनसे बिछड़ गए।

और ये दोनों गुरु-पुत्र वजीर खाँ के हाथों में आ गए उसने इन बालकों से इस्लाम स्वीकार करने के लिए कहा परन्तु उन बालकों ने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया।

और 27 दिसम्बर 1704 को वजीर खाँ ने इन गुरुपुत्रों को जीवित ही दीवार में चुनवा दिया। कहा जाता है कि उस समय गुरुपुत्रों की माता भी उनके साथ थी जो यह भयानक मंजर को देखकर मृत्यु को प्राप्त हो गई।

गुरु गोबिंद सिंह जी ने औरंगजेव को फ़ारसी भाषा में लिखा गया पत्र |जफरनामा

जब गुरु गोविंदसिंह जी को अपने पुत्रों की शहीदी का पता चला तो उन्होंने औरंगजेब की धर्मान्ध नीति के विरुद्ध उसे फारसी भाषा में एक पत्र लिखा जिसे ‘जफरनामा‘ के नाम से जाना जाता है जिसका अर्थ हेाता है- ‘विजय की चिट्ठी।’ इस पत्र में औरंगजेब के शासन-काल में हो रहे अन्याय तथा अत्याचारों का उल्लेख मिलता है।

इस पत्र में गुरुजी ने औरंगजेब को नेक कर्म करने और मासूम प्रजा का खून न बहाने की सलाह दी थी तथा धर्म की आड़ में हिंसा न करने की चेतावनी भी दी थी।

गुरु ने औरंगजेब को योद्धा की तरह रणक्षेत्र में आकर युद्ध करने की चुनौती दी तथा लिखा कि तेरी सल्तनत नष्ट करने के लिए खालसा पंथ तैयार हो गया है।

सिख समुदाय गुरु पुत्रों की शहीदी के बाद बजीर खान का शत्रु हो गया

गुरु-पुत्रों की शहीदी के बाद सिक्ख वजीर खाँ तथा औरंगजेब का शत्रु हो गए। सिखों ने पंजाब, लाहौर (जो उस समय पंजाब की राजधानी थी ) सहित विभिन्न नगरों में मारकाट और लूटमार मचा दी। सिखों ने मुगलों के कई भवनों को लूट लिया और बहुत से इमारतों को नष्ट कर दिया।

चमकौर का युद्ध

ई.1705 में चमकौर (अब का मुक्तसर) नामक स्थान पर दोनों पक्षों के बीच भीष्ण लड़ाई हुई । इस युद्ध में गुरु गोविन्द सिंह जी के अन्य दो पुत्र अजीत सिंह और जुझार सिंह भी मृत्यु को प्राप्त हुए ।

सिखों द्वारा मुगलों के उस समय के प्रमुख स्थान सरहिंद को पूरी तरह नष्ट कर दिया गया तथा लाहौर सहित आसपास के कई मुगल भवनों के पत्थरों को तोड़कर अमृतसर के स्वर्णमंदिर को भेज दिया गया

गुरु जी से मिलने से पहले ही औरंगजेव का निधन

औरंगजेब की सेनाओं को युद्धों में भयंकर क्षति पहुंच रही थी किंतु औरंगजेब दक्खिन(दक्षिण) में इस तरह उलझा हुआ था कि दक्खिन को छोड़ सकने की स्थिति में नहीं था इसलिए उसने गुरु से सन्धि करने के लिए उन्हें दक्षिण में आने के लिए आमंत्रित किया।

गुरु गोविंदसिंह उससे मिलने दक्षिण की तरफ रवाना हुए किंतु गुरु और औरंगजेब की भेंट से पूर्व ही औरंगजेब का निधन हो गया। और ये बात इतिहास के पन्नो में दफ़न हो गई कि गुरु गोबिंद सिंह जी और औरंगजेव का मिलन होता तो किस तरह की परिस्थियाँ बनती। क्यूंकि उस समय औरंगजेव ने गुरु गोबिंद सिंह के परिवार पर भयंकर जुल्म किये थे

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FAQ

5 pyare name in hindi

5-pyaron-ki-sampuran-jankari

जिनको 5 प्यारों की दीक्षा दी गई थी उनमे दिल्ली का धर्मदास जाट,लाहौर का दयाराम खत्री, जगन्नाथ का हिम्मत भीवर, द्वारका का मोहकमचंद दर्जी एवं बीदर का साहबचंद नाई शामिल थे।