15 अगस्त 1947 को भारत आजाद हुआ इससे पहले कि भारतीय आजादी की ख़ुशी मनाते भारत को बंटवारे का दंश झेलना पड़ा। लेकिन ये बंटवारा हुआ क्यों था और पाकिस्तान क्यों बनाया गया था।
क्या धर्म के आधार पर ! मगर पाकिस्तान से ज्यादा मुस्लिम आबादी तो भारत में हैं। और पाकिस्तान की नींव रखने वाले मोहम्मद अली जिन्ना तो खुद गुजरात के एक हिन्दू परिवार से संबंध रखते थे।
तो यह साफ़ है कि पाकिस्तान केवल धार्मिक आधार पर नहीं बनाया गया था। पाकिस्तान बनने के कारणों को समझने से पहले हम जिन्ना के बारे में थोड़ा सा जान लेते हैं।
Table of Contents
Toggleक्या मोहम्मद अली जिन्ना हिन्दू थे
मोहम्मद अली जिन्ना के दादा का नाम पूंजाभाई ठक्कर था जो कि एक हिन्दू परिवार से थे तथा गुजरात के राजकोट के पानेली मोटी गांव में रहते थे।
मछलियों का व्यापार करने की वजह से उनको बिरादरी से निकल दिया गया। परिवार ने दोवारा बिरादरी में शामिल होने की पूरी कोशिश की परन्तु जब उनको गाँव वालो ने बिरादरी में शामिल नहीं किया तो सम्पूर्ण परिवार ने इस्लाम धर्म अपना लिया।
इस प्रकार जिन्ना एक हिन्दू परिवार के सदस्य थे जिन्होंने अपना धर्मांतरण कर लिया था।
मुस्लिम राष्ट्र पाकिस्तान की मांग किसने और कहाँ की | पाकिस्तान का नाम किसने रखा
1930 ई. में लीग के लखनऊ अधिवेशन में पहली बार सर मुहम्मद इकबाल ने पंजाब, सीमा प्रान्त सिंध और विलोचिस्तान को मिलाकर एक नया मुस्लिम राज्य बनाने का प्रस्ताव पेश किया था।
1933 ई. में पंजाब के चौधरी रहमत अली ने मुसलमानों को एक ‘राष्ट्र’ (Nation) नाम से सम्बोधित किया था। रहमत अली ने ही इकबाल साहब द्वारा प्रस्तावित नये राज्य को सर्वप्रथम ‘पाकिस्तान’ नाम दिया।
उसने पाकिस्तान में ऊपर लिखे प्रान्तों के अतिरिक्त कश्मीर को भी पाकिस्तान में शामिल करने का सुझाव दिया। उसने अपनी योजना का इंग्लैण्ड तक में प्रचार किया और इसके पैम्फलेट उसने ब्रिटिश संसद सदस्यों को बांटें।
फिर भी अनेक बड़े मुस्लिम नेताओं ने इस योजना को काल्पनिक और अव्यवहारिक कहकर अस्वीकार कर दिया। जफरुल्लाह खां ने इस योजना को अनुचित और काल्पनिक ही कहा था।
जिन्ना पाकिस्तान क्यों चाहते थे।
1937 के चुनावो में मुस्लिम लीग की हार एक बड़ी वजह
मोहम्मद अली जिन्ना का पाकिस्तान की मांग का सबसे बड़ा कारण, 1937 में हुए चुनावों में मुस्लिम पार्टी “मुस्लिम लीग” की असफलता को माना जाता है।
पंजाब,बंगाल और उत्तर पश्चिम सीमा प्रान्त में मुस्लिम आबादी अधिक थी परन्तु फिर भी इन प्रांतो में मुस्लिम लीग सफलता प्राप्त नहीं कर पाई।
बंगाल में 119 में से मुस्लिम लीग को केवल 36 सीटें प्राप्त हुई। पंजाब में 86 में से केवल 1 सीट प्राप्त हुई। इस प्रकार ब्रिटिश भारत प्रांतो में मुसलमानों के लिए कुल 482 स्थान निर्धारित हुए थे
जिनमे से लीग केवल 51 सीटें ही जीत पाई। कांग्रेस ने 11 प्रांतो में हुए चुनावों में से 7 प्रांतो में मंत्रिमंडल बनाया और शेष में सयुंक्त मंत्रिमंडल।
इस प्रकार इन चूनाव नतीजों से ये साबित हो गया कि मुस्लिम लीग मुसलमानों में ही लोकप्रिय नहीं है। लीग ने जनता का विश्वास प्राप्त करने के लिए एक नयी योजना का प्रसार करना शुरू कर दिया। उनका कहना था कि सयुंक्त भारत में मुसलमानो की रक्षा एकदम असम्भव है।
अंतरास्ट्रीय घटनाएं
मुस्लिम लीग पर चेकोस्लोवाकिया के सुदेटन आंदोलन का बहुत प्रभाव पड़ा। 1938 में सुदेटन प्रदेश को चेकोस्लोवाकिया से अलग कर जर्मनी के साथ मिला दिया गया था।
इसका प्रभाव मुस्लिम लीग पर भी पड़ा। उस समय यूरोप में जे. एस. मिल के सिद्धांतों का बहुत प्रभाव था उन्ही के सिद्धांतो के अनुसार मुस्लिम लीग ने यह तर्क दिया कि कोई भी स्वतंत्र राज्य किसी जाति के धर्म, संस्कृति और भाषा के विकास में सहायक होता है
और ऐसे राज्य में झगड़े और प्रतिस्पर्धाएं नहीं होतीं। इसी आधार पर लीग ने पाकिस्तान की मांग की।
अंग्रेजों के षड्यंत्र (British Diplomacy )
पाकिस्तान के निर्माण में सर्वाधिक सहायक तत्व तो अंग्रेज रहे हैं। उन्होंने अपनी निरन्तर “फूट डालो और शासन करो” की नीति के द्वारा साम्प्रदायिकता को जन्म दिया।
अंग्रेजों का कहना था कि वे भारत को स्वतंत्र करना चाहते हैं परन्तु अल्पसंख्यकों को बहुसंख्यकों की दया पर नहीं छोड़ना चाहते। वास्तव में अंग्रेज भारत में फूट डलवाकर अधिक दिनों तक शासन करना चाहते थे।
जब उनके पैर भारत में बिल्कुल डगमगा गये तब उन्होंने चलते-चलते भारत के विभाजन का निश्चय किया था।
मोहम्मद अली जिन्ना की टू नेशन थ्योरी (Two-Nation Theory)
द्विराष्ट्र का सिद्धान्त (Two-nation theory) मुहम्मद अली जिन्ना की देन है। उन्होंने हिन्दू और मुसलमानों के बीच मौलिक भेद को उजागर किया उन्होंने कहा ये दोनों कभी एक नहीं हो सकते।
दोनों की संस्कृतियां भिन्न हैं। लीग के सत्ताइसवें अधिवेशन के अध्यक्षपद से उन्होंने अपने भाषण में कहा था-
“भारत में अंतर्जातीय समस्या नहीं, वरन् अन्तर्राष्ट्रीय समस्या है और इस पर इसी दृष्टिकोण से विचार करना चाहिए।
यह समझना अत्यन्त कठिन है कि हमारे हिन्दू दोस्त इस्लाम और हिन्दुव के वास्तविक स्वभाव को क्यों नहीं समझते… यह केवल एक कोरा स्वप्नमात्र है कि हिन्दू और मुसलमान एक समान राष्ट्र हो सकते हैं।
हिन्दू और मुसलमानों के भिन्न धार्मिक दर्शन हैं, सामाजिक रीतियाँ और साहित्य भिन्न हैं। न तो उनके कभी पारस्परिक विवाह होते हैं, न आपस में खाना-पीना होता है।
वास्तव में, दोनों की सभ्यता ही भिन्न है। दोनों की सभ्यताओं का आधार नितान्त विरोधी विचारों और मान्यताओं पर है। जीवन के संबंध में दोनों के विचारों में भिन्नता है।
यह भी स्पष्ट है कि हिन्दू और मुसलमान इतिहास की भिन्न-भिन्न धाराओं से प्रेरणा लेते हैं।
उनकी गाथाएं अलग है, उनके महापुरुष अलग हैं, उनका साहित्य अलग है। प्रायः एक का नायक दूसरे का शत्रु है और इसी प्रकार एक की विजय दूसरे की पराजय है।
इस प्रकार की दो भिन्न उपजातियों को एक राज्य में जिसमें एक बहुमत में है
और दूसरी अल्पमत में रखना अनिवार्य रूप से असंतोष और विनाश का कारण बनेगा।” इस प्रकार मुस्लिम राष्ट्रीयता के सिद्धान्त का प्रतिपादन करते हुए जिन्ना ने लीग के लिए कांग्रेस के साथ समानता की मांग की और मुस्लिम लीग को मुसलमानों की एकमात्र राजनीतिक संस्था सिद्ध किया।
उन्होंने कांग्रेस को हिन्दुओं का संगठन कहकर उसकी राजनीति को मुसलमानों के आत्मनिर्णय के अधिकार का विरोधी बताया।
क्या 1947 के बंटवारे को रोका जा सकता था | भारत पाकिस्तान के विभाजन के लिए कौन जिम्मेबार थे ।
कुछ विद्वान विभाजन के लिये कांग्रेस को दोषी ठहराते हैं। उनका कहना है कि विभाजन कांग्रेस की दोषयुक्त नीतियों का ही परिणाम था।
कांग्रेस ने हमेशा मुस्लिम लीग से समझौते के लिये उत्सुकता दिखाई। इससे अनावश्यक ही लीग का महत्व बढ़ गया और वह अन्त तक कांग्रेस का विरोध करती रही।
14 जून 1947 को दिल्ली में हुई कांग्रेस महासमिति की बैठक में विभाजन को उचित बताते हुये नेहरू जी ने कहा था कि “कांग्रेस भारतीय संघ में किसी भी इकाई को बलपूर्वक रखने के विरुद्ध रही है।” सरदार पटेल के भाषण में भी इसका समर्थन मिलता है।
इसलिये जिन्ना का विचार सही था कि “कांग्रेस अन्त में परिस्थिति से विवश होकर विभाजन के लिये राजी हो जायेगी
।” दूसरे, भारत के राष्ट्रवादी नेताओं की यह धारणा भी अनुचित थी कि उनका मुख्य संघर्ष जिन्ना के साथ न होकर अंग्रेजों के साथ था। इसलिये वे बार-बार जिन्ना से बातचीत करते थे जिन्ना को अंग्रेजों का समर्थन प्राप्त था
अतः उसने बार-बार इस नीति का अनुचित लाभ उठाया और हमेशा कांग्रेस को एक हिन्दू संस्था माना और अपने आपको मुसलमानों का एकमात्र प्रतिनिधि
मौलाना आजाद ने कुछ बातों के लिये नेहरू को भी दोषी ठहराया
मौलाना आजाद के अनुसार, “जवाहर लाल नेहरू ने 1937 में उत्तर प्रदेश के मंत्रिमण्डल में चौधरी खली कुलजमा और नवाब इमा खा को लीगी प्रतिनिधियों के रूप में न लेकर पहली गलती की |
ये दोनों उत्तर प्रदेश के नेता थे और कांग्रेस के साथ सहयोग करने तथा उसके कार्यक्रम को स्वीकार करने को तैयार थे।
नेहरू जी उनमे से एक को लेना चाहते थे जबकि उनमें से अकेला जाने को कोई भी तैयार न था। फलस्वरूप उत्तर प्रदेश में ही मुस्लिम लीग को संगठित किया गया और कुछ समय बाद पाकिस्तान की मांग उठी।
संक्षेपण
भारत के विभाजन से पूर्व परिस्थतियां इस प्रकार की थीं कि विभाजन को टालना सम्भव नहीं था।
देश में जगह-जगह साम्प्रदायिक दंगों को देखते हुए विभाजन के अतिरिक्त कोई चारा बाकी नहीं बचा था। अंग्रेज अधिकारी भी भारत को संगठित नहीं देखना चाहते थे।
पुलिस प्रतिरक्षा, सूचना तथा यातायात आदि सभी महत्वपूर्ण विभागों में मुसलमानों की नियुक्ति की जा रही थी।
अन्तरिम सरकार में मुस्लिम लीग के सदस्यों ने कांग्रेसी मन्त्रियों के मार्ग में अड़चने डालनी शुरू कर दीं।
भारत सरकार का राजनीतिक विभाग देशी रियासतों के साथ मिल कर भारत की एकता को भंग करने का प्रयत्न कर रहा था
जिन्ना देश के बंटवारे के मामले में किसी भी प्रकार का समझौता करने के लिये तैयार नहीं थे। अंतः देश के विभाजन के अलावा और कोई हल नहीं था।
पं. जवाहर लाल नेहरू के शब्दों में, “हालात की मजबूरी थी और यह महसूस किया गया कि जिस मार्ग का हम अनुसरण कर रहे हैं, उसके द्वारा गतिरोध को हल नहीं किया जा सकता। अतः हमें देश के बंटवारे को स्वीकार करना पड़ा।”