हमारे देश में हर किसी को सम्मान के साथ जीने का अधिकार है परन्तु सुप्रीम कोर्ट के सामने कई बार ऐसे केस आये जिसमे आत्महत्या के खिलाफ बनाये गए कानून आई पी सी सेक्शन 309 में सुप्रीम कोर्ट ने अलग अलग फैसले सुनाये। ऐसा ही एक केस था Gyan Kaur vs State of Punjab case.

ज्ञान कौर बनाम पंजाब सरकार (Gyan Kaur vs State of Punjab case)

पंजाब की रहने वाली ज्ञान कौर और उनके पति हरबंस सिंह पर अनुच्छेद 21 और 14 के उल्लंघन का आरोप लगा। उन पर उनकी बहू गुरवंत कौर को आत्महत्या के लिए उकसाने का आरोप था। और उनको आई पी सी सेक्शन 306 के तहत दोषी पाया गया।

क्या कहते हैं इस केस के अनुच्छेद(Article) और धारा (section)

  • धारा (section) 306 – आत्महत्या के लिए उकसाने के अपराध का प्रावधान करती है।
  • धारा (section) 309 – जिसमें कहा गया है कि आत्महत्या के प्रयास में जीवित बचे प्रत्येक व्यक्ति को दंडित किया जाएगा।
  • अनुच्छेद (Article) 14 – ये कहता है कि प्रत्येक व्यक्ति कानून की दृष्टि में समान है।
  • अनुच्छेद (Article) 21 – ये कहता है कि प्रत्येक व्यक्ति को जीवन और स्वतंत्रता का अधिकार है।

 

तो ज्ञान कौर और उनके पति हरबंस सिंह का केस पहले निचली अदालत में पहुँचता है। निचली अदालत ज्ञान कौर और उनके पति को दोषी पाती है और उनको 6 साल कैद और 2000 रूपये जुर्माने की सजा सुनाती है। 2000 रूपये जुर्माना नहीं दे पाने की स्थिति में कैद को 9 महीने बढ़ाना तय हुआ।

ज्ञान कौर ने इस फैसले के खिलाफ उच्च न्यायालय में याचिका दायर की। उच्च न्यायालय ने भी ज्ञान कौर और उनके पति को दोषी पाया परन्तु यहाँ पर उनकी सजा को कम कर दिया गया और उनको 3 साल कैद की सजा सुनाई गई।

इसी कड़ी में ये केस निचली अदालत और उच्च न्यायालय से होते हुए सर्वोच्च न्यायालय (सुप्रीम कोर्ट) पहुँचा। सुप्रीम कोर्ट में इस केस की सुनवाई हुई जिसमे 5 जजों को बेंच बैठाई गई। ये 5 जज थे जस्टिस के ऍम जॉसेफ , जस्टिस अनिरुद्ध राय , जस्टिस अजय रस्तोगी ,जस्टिस सीटी रवि कुमार और हरिशेकेष रॉय। जजों ने इस केस का अच्छे से विश्लेषण किया जिसमे जजों की टीम ने ज्ञान कौर और उनके पति को आई पी सी की धारा 306 के अनुसार दोषी पाया।

ज्ञान कौर ने सुप्रीम कोर्ट में अपना पक्ष रखते हुए कहा कि आई पी सी की धारा 306 असंवैधानिक है क्यूंकि सुप्रीम कोर्ट पहले ही धारा (section) 309 के तहत आत्महत्या करने को एक दंडनीय अपराध मान चूका है । जिसके तहत अगर कोई आत्महत्या की कोशिश करने वाला जिन्दा बच जाता है तो उसे 1 साल तक की सजा हो सकती है। ज्ञान कौर ने 1994 के पी राठीराम केस का हवाला देते हुए कहा कि इस केस में सुप्रीम कोर्ट ने धारा 309 को हटा दिया था।

इस पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि भारतीय संबिधान का आर्टिकल 14 और 21 हर किसी को खुल कर आजादी से जीने का अधिकार देता है। और इसे छीना नहीं जा सकता क्यूंकि इसमें जीने का अधिकार आता है मरने का नहीं। और ज्ञान कौर और उसके पति ने आर्टिकल 21 का उलंघन किया है जिसको कोर्ट बिलकुल स्वीकार नहीं करता है। सुप्रीम कोर्ट ने ज्ञान कौर और उसके पति की सजा को बरक़रार रखा।

श्रीमती दूबल बनाम महाराष्ट्र सरकार (shrimati dubal vs state of maharashtra)

इससे पहले श्रीमती दूबल बनाम महाराष्ट्र सरकार केस सुप्रीम कोर्ट के सामने आया था जिसमे भी सुप्रीम कोर्ट ने कहा था की आर्टिकल 21 खुल कर आजादी से जीने का अधिकार देता है और इसका उलंघन करना गलत है।

और अगर कोई व्यक्ति आत्महत्या करने की कोशिश करता है तो ये उस राज्य सरकार का दायित्व है कि वो उस व्यक्ति के जीवन को सुरक्षा प्रदान करे। और अगर कोई राज्य ऐसा करने में असफल हो जाता है तो ये आर्टिकल 21 की निष्फलता है।

सुप्रीम कोर्ट ने आत्महत्या को गैर क़ानूनी करार दिया और साथ ही ये भी कहा कि अगर कोई व्यक्ति आत्महत्या की कोशिश करता है तो उसके ख़िलाफ़ क़ानूनी कार्यवाही की जा सकती है। सुप्रीम कोर्ट ने यहाँ आत्महत्या को अपराध माना।

अरुणा शानबाग केस में भी सुनाया गया था ऐसा ही फैसला

अरुणा शानबाग मुंबई के किंग एडवर्ड मेमोरियल (केईएम) हॉस्पिटल में कुत्तों को दवाई देती थीं। 27 नवंबर 1973 को उसी हॉस्पिटल के एक बार्ड बॉय ने उनका बलात्कार करने की कोशिश की।

उसने कुत्ते को बांधने वाली जंजीर से शानबाग का गला इस कदर दवा दिया कि गले की नसें दबने से वो कोमा में चली गई। वह 37 साल से कोमा में चल रहीं थीं।

एक पत्रकार पिंकी वीरानी ने सुप्रीम कोर्ट से उन्हें इच्छा या दया मृत्यु देने की मांग की परन्तु 8 मार्च 2011 को अरुणा को दया मृत्यु देने की याचिका सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दी। 42 साल तक कोमा में रहने के बाद 2015 में अरुणा शानबाग की मृत्यु हो गई।

क्या है इच्छा या दया मृत्यु (Euthanasia)

इच्छा या दया मृत्यु (Euthanasia) 2 प्रकार की होती है।

  • सक्रीय यूथेनेशिया (Active Euthanasia) – इसमें मरीज को जहरीली दवा या इंजेक्शन दिया जाता है ताकि उसकी मौत हो जाये।
  • निष्क्रिय यूथेनेशिया (Passive Euthanasia) – इसमें मरीज के सपोर्ट सिस्टम जैसे वेंटिलेटर को हटा लिया जाता है या दवाएं बंद कर दी जाती हैं।
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9 मार्च 2018 को लागु हुआ इच्छा मृत्यु का कानून

सुप्रीम कोर्ट ने 9 मार्च 2018 ऐतिहासिक फैसला सुनते हुए निष्क्रिय इच्छा मृत्यु को मंजूरी दे दी । सुप्रीम कोर्ट ने कहा जिस प्रकार अनुच्छेद 21 में सम्मान के साथ जीने का अधिकार है उसी प्रकार सम्मान के साथ मरना भी एक अधिकार है। निष्क्रिय यूथेनेशिया में उस व्यक्ति का इलाज बंद कर दिया जाता है ताकि उसकी मृत्यु हो सके।

इच्छामृत्यु किनको दी जा सकती है।

सुप्रीम कोर्ट के अनुसार अगर कोई व्यक्ति किसी गंभीर बीमारी से पीड़ित हों और उसके जीवित बचने की कोई सम्भावना न हो तो वो व्यक्ति इच्छामृत्यु के लिए आवेदन कर सकता है। हालाँकि इसके लिए उसको लिखित आवेदन देना होगा जिसको लिविंग बिल कहा जाता है । और डॉक्टर को इस पर अपनी मान्यता देनी होगी।

लिविंग बिल की समस्याएं

लिविंग बिल की समस्यायों पर कोर्ट ने समस्या जताई है। अगर किसी घर में या रिस्तेदारी में प्रॉपर्टी डिस्प्यूट चल रहा हो या घर के बजुर्गो का जहाँ सम्मान नहीं होता हो वहाँ पर इस लिविंग बिल का गलत फायदा उठाया जा सकता है।

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