सिर दर्द की 200 तरह की दवाइयां मार्किट में उपलब्ध हैं पर जब हमें सिर में दर्द होता है तो हम मेडिकल स्टोर से खरीदते हैं केवल डिस्प्रिन ! क्या हम जानते हैं क्यों ! इसके पीछे काम करती है विज्ञापन की मानसिकता।
एक ही विज्ञापन को टेलीविज़न पर बार-बार दोहराकर उपभोक्ता की स्मृति में दर्ज करना प्रयोजक का लक्ष्य होता है । इसलिए टेलीविज़न विज्ञापन बार-बार दिये जाते हैं, लम्बे समय तक दिये जाते हैं।
टेलीविज़न पर विज्ञापन देने वालों के बीच परस्पर होड़ लगी रहती है। सब अपने उत्पाद को प्रमुखता से प्रस्तुत होते देखना चाहते हैं क्योंकि सभी यह जानते हैं कि निश्चित दस सेकेन्ड की अवधि में भी लाखों लोगों तक जिस तरह एक साथ पहुँचा जा सकता है, वह किसी अन्य माध्यम में सम्भव नहीं है।
एक कहावत है कि दुनिया के सबसे बड़ी और महत्वपूर्ण बिक्री (sales) एक बंद कमरे में होती है और इन सौदों में अक्सर कुछ चुनिंदा और बहुत ही प्रभावशाली लोग शामिल होते हैं, जो बड़ी कंपनियों के मालिक, सीईओ, या उच्च-स्तरीय अधिकारी होते हैं। यहाँ पर ये अपने ग्राहकों को विज्ञापनों के जरिये लुभाने की योजनाएं बनाते हैं
पहले समय में चीज़ें लोगों की ज़रूरतों के हिसाब से बनती थी लेकिन विज्ञापन के युग में ऐसा है कि आप चीज़ें बना दो, विज्ञापन के जरिये जरूरतें हम पैदा कर देंगे।
एक ज़माना था जब फेरी वाले घर-घर जा कर अपना सामान बेचने के लिए, सामान की खूबियाँ बताते हुए गीत गाते थे। ‘चना जोरगरम’ या रंग-बिरंगी चूड़ियों आदि पर बने गीत लोगों की ज़बान पर चढ़ जाते थे। उन गीतों को विज्ञापन का आरम्भिक रूप भले ही मान लें लेकिन आज के विज्ञापन से वे बहुत भिन्न थे।
आज के दौर में विज्ञापन सिर्फ़ एक पोस्टर या टीवी ऐड नहीं, बल्कि एक पूरी कहानी बन चुके हैं। वे हमें हंसाते हैं, रुलाते हैं, प्रेरित करते हैं — और धीरे-धीरे हमारे दिमाग में इस तरह घर कर जाते हैं कि अगली बार खरीदारी करते समय हम उसी ब्रांड का नाम याद करते हैं।
टेलीविज़न पर प्रत्येक आयु वर्ग के अपने मनपसन्द चैनल हैं—बच्चे कार्टून नेटवर्क या डिज़नी चैनल देखते हैं, युवा ‘एम.टी.वी.’ या ‘चैनल वी’, स्त्रियों को घर-घर की कहानियों वाले धारावाहिक अच्छे लगते हैं, खेल प्रेमियों की पसन्द स्पोर्ट्स चैनल हैं।
बुद्धिजीवियों को समाचार-विचार के कार्यक्रमों में दिलचस्पी है तो बड़े-बूढ़ों को आस्था चैनल में— इस प्रकार हर प्रयोजक अच्छी तरह से जानता है कहाँ पर किस तरह की ऑडियंस को टारगेट करना है। उनकी प्राथमिकताओं के आधार पर उनको आकर्षित करने वाले उत्पाद और सेवाओं के विज्ञापन उनके मनपसन्द चैनल पर दिए जाते हैं।
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Toggleटेलीविज़न पर आजकल अधिकतर समय में केवल विज्ञापन ही दिखते हैं
टेलीविज़न पर आने वाले तीस मिनट के कार्यक्रम में प्रायोजक को कम-से-कम चार बार अपना विज्ञापन दिखाने का अवसर मिलता है। जिस कार्यक्रम की लोकप्रियता जितनी होगी उसमें विज्ञापन का लाभ भी उतना ही बड़ा होगा।
टी.आर.पी. के लिए होने वाले मीडिया दंगल अधिक से अधिक विज्ञापनों को अपने चैनल पर आकर्षित करने की मुहिम हैं। विज्ञापन मीडिया चैनल की आय का बहुत बड़ा साधन है। अधिक विज्ञापन का अर्थ है अधिक भुगतान।
जैसे कोई खेल कार्यक्रम है—किक्रेट या टेनिस का मैच तो सभी खेल प्रेमी अपनी टेलीविज़न स्क्रीन के पास आ जुटेंगे। इस समय प्रयोजक जैसे, शीतल पेय, चॉकलेट, गाड़ी, इंश्योरेंस, बैंक आदि ये सभी उस कार्यक्रम के प्रायोजक होकर अपने-अपने ब्रांड का प्रमोशन करना चाहते हैं।
दुनिया का पहला टूथपेस्ट कैसे बेचा गया था
1900 के पूर्वार्ध में अमेरिका के एक प्रतिष्ठित कार्यकारी अधिकारी क्लाउड सी. हॉपकिंस से उनके एक पुराने मित्र ने संपर्क किया। उस मित्र के पास एक नए व्यवसाय की योजना थी। दरअसल उसे एक ऐसे उत्पाद (प्रोडक्ट) के बारे में पता चला था, जो अद्भुत था।
उसे पूरा यकीन था कि इसका व्यवसाय बहुत ही फायदेमंद साबित होगा। यह उत्पाद कुछ और नहीं बल्कि पेपरमिंट के स्वादवाला गाढ़ा टूथपेस्ट था, जिसका नाम था ‘पेप्सोडेंट।’
चार्ल्स डुहिंग अपनी किताब ” द पावर ऑफ़ हैबिट” में लिखते हैं कि वे हॉपकिंस ही थे, जिन्होंने श्लिट्ज बीयर का विज्ञापन करके पूरे अमेरिका को इसका कायल बना दिया था।
चार्ल्स डुहिंग अपनी किताब ” द पावर ऑफ़ हैबिट” में लिखते हैं कि दाँतों पर आवरण आना तो सामान्य बात है। ऐसा हमेशा होता आया है और इससे कभी किसी को कोई दिक्कत नहीं हुई। आप कुछ भी खाएँ या चाहे जितनी बार अपने दाँत साफ करें, यह आवरण दाँतों पर आ ही जाता है।
लेकिन हॉपकिंस ने जिस तरह से इसका इस्तेमाल पहला टूथपेस्ट बेचने के लिए किया वो काबिलेतारीफ है। पेप्सोडेंट टूथपेस्ट बेचने के लिए हॉपकिंस को ऐसे इशारे की ज़रूरत थी, जिससे ग्राहकों को हर रोज़ इसका उपयोग करने के लिए प्रोत्साहित किया जा सके। इसके लिए हॉपकिंस ने दाँतों के स्वास्थ्य से जुड़ी कई किताबों का अध्ययन भी किया।
इनमें से एक किताब में हॉपकिंस को म्यूसिन प्लेक की जानकारी मिली। इसको उन्होंने आवरण का नाम देकर लोगो में प्रसिद्ध कर दिया। म्यूसिन प्लेक दाँतों के कोनों में जमने वाले मैल की पर्त होती है जो सूक्ष्मजीवों की देन होती है।
इससे पहले लोगों ने कभी भी इस पर ध्यान नहीं दिया क्योंकि इस बारे में ध्यान देने लायक कोई कारण भी नहीं थे। इस आवरण को तो एक सेब खाकर, दाँतों पर उँगलियाँ फिराकर या फिर कुल्ला करके आसानी से साफ किया जा सकता है।
इस आवरण को हटाने के लिए टूथपेस्ट कोई विशेष काम नहीं करता है। यहाँ तक कि उस समय दाँतों के कई प्रमुख शोधकर्ताओं ने भी कहा था कि टूथपेस्ट और विशेषकर पेप्सोडेंट बेकार है।
पर ये सारे कारण मिलकर भी हॉपकिंस को टूथपेस्ट का प्रचार करने से नहीं रोक सके और उन्होंने आवरण की अपनी जानकारी को अपने फायदे के लिए खूब इस्तेमाल किया। उन्हें समझ में आ गया था कि आवरण के बारे में बात करके ग्राहकों को ऐसा इशारा दिया जा सकता है, जिससे उनके अंदर आदत विकसित हो सके।
जल्द ही कई शहरों में चारों ओर पेप्सोडेंट का विज्ञापन नज़र आने लगा। इस विज्ञापन में लिखा था – ‘अपनी जीभ को दाँतों पर घुमाएँ। क्या आपको एक आवरण महसूस हुआ? यही वो आवरण है, जिसके कारण आपके दाँत धुँधले नज़र आते हैं और इसी से आपके दाँतों को नुकसान भी पहुँचता है।’
पेप्सोडेंट के एक अन्य विज्ञापन में मुस्कराती हुई सुंदर महिलाओं के चित्र लगे हुए थे और लिखा था, ‘ज़रा गौर कीजिए कि आपके चारों ओर ऐसे कितने लोग हैं, जिनके दाँत सुंदर हैं।
आज लाखों लोग अपने दाँतों को साफ करने के लिए यह नया तरीका इस्तेमाल कर रहे हैं। भला कौन सी महिला चाहेगी कि उसके दाँतों पर मैल का आवरण चढ़ा हो। पेप्सोडेंट इस आवरण को हटाता है!’
इन विज्ञापनों की खूबी यह थी कि ये सब एक इशारे पर निर्भर थे – और वो इशारा था – दाँतों पर चढ़ा मैला आवरण। यह एक वैश्विक चीज़ थी और इसे अनदेखी करना असंभव था। किसी को उसके दाँतों पर जीभ घुमाने के लिए कहते ही लोग तुरंत ऐसा करते थे और उन्हें अक्सर अपने दाँतों पर एक आवरण महसूस हो जाता था।
हॉपकिंस ने एक बेहद सहज इशारा ढूँढ़ निकाला था। यह ऐसा इशारा था, जो सदियों से मौजूद था और इतना सहज था कि एक साधारण से विज्ञापन को देखकर भी लोग इसे स्वत: ही मान लेते थे।
हॉपकिंस लिखते हैं, ‘ मैंने जब टूथपेस्ट के विज्ञापन की मुहिम चलाने के लिए माना था , तो मेरी एक शर्त थी कि वह मुझे कंपनी के शेेयर्स में छह महीने के ब्लॉक (अधिक मात्रा में शेयरों को बेचने या खरीदने) का विकल्प देगा।’ उनके मित्र ने उनकी यह शर्त फौरन मान ली।
हॉपकिंस का यह निर्णय उनके लिए आर्थिक द़ृष्टि से बहुत समझदारी भरा साबित हुआ। इस साझेदारी से हॉपकिंस ने सिर्फ पाँच सालों में पेप्सोडेंट को दुनिया का सबसे मशहूर टूथपेस्ट बना दिया। इसके साथ ही उन्होंने अमेरिकी लोगों में नियमित रूप से दाँत साफ करने की आदत भी विकसित कर दी।
जल्द ही यह आदत आश्चर्यजनक रूप से पूरे अमेरिका में फैल गई। इसके बाद तो शर्ली टेंपल से लेकर क्लार्क गेबल जैसे सभी फिल्म कलाकार अपनी ‘पेप्सोडेंट मुस्कान’ की शेखी बघारने लगे।
इस प्रक्रिया में हॉपकिंस को इतना मुनाफ़ा हुआ कि उन्होंने अपनी आत्मकथा – ‘माय लाइफ इन एडवर्टाइजिंग’ में कई जगह विस्तार से लिखा है कि अत्यधिक पैसा खर्च करने में कैसी-कैसी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है।
विज्ञापन को लोगो के दिलों तक कैसे पहुँचाया जाता है
एक विज्ञापन को लोगो के दिलों तक पहुँचाने में प्रचारक अलग अलग तरीकों का इस्तेमाल करते हैं कुछ जगह भावनात्मक रूप से, कुछ जगह पर स्टेटस से जोड़कर और कुछ जगह पर और अलग अलग तरीकों से।
उदाहरण के लिए उन्होंने क्वॉकर कंपनी के ओट्स के विज्ञापन में बताया कि इसे नाश्ते के रूप में खाने से आप दिनभर ऊर्जावान महसूस करेंगे, पर ऐसा सिर्फ तभी संभव होगा, जब आप हर रोज़ एक कटोरी क्वॉकर ओट्स खाएँगे।
इसी प्रकार उन्होंने पेटदर्द, जोड़ों के दर्द, खराब त्वचा और औरतों की समस्याओं के लिए यह कहकर बड़ी मात्रा में टॉनिक बेचे कि बीमारी के शुरुआती लक्षण नज़र आते ही आपको ये टॉनिक पीना होगा।
इसके बाद जल्द ही लोगों ने रोज़ सुबह के नाश्ते में ओट्स खाना शुरू कर दिया। यही लोग ज़रा सी थकान महसूस होते ही हॉपकिंस द्वारा बेचा गया टॉनिक भी पीने लगे, जबकि दिन में एक-दो बार थकान महसूस होना सामान्य बात है।
विज्ञापन इंडस्ट्री कैसे काम करती है और दिलों पर छा जाती है
विज्ञापन का मुख्य उद्देश्य केवल किसी प्रोडक्ट का नाम बताना नहीं, बल्कि लोगों में उस प्रोडक्ट की चाहत और ज़रूरत पैदा करना है। इसके लिए विज्ञापन कंपनियां मार्केट रिसर्च, क्रिएटिव आइडिया और सही मीडिया चैनल का इस्तेमाल करती हैं।
सन्देश देते विज्ञापन
1989 में बजाज स्कूटर का विज्ञापन आया जिसने रेडियो और टेलीविज़न पर समान रूप से धूम मचा दी।
ये ज़मीं ये आसमां, हमारा कल हमारा आज, बुलन्द भारत की बुलन्द तस्वीर हमारा बजाज, हमारा बजाज
यहाँ ब्रांड को देश के गौरव से जोड़ा गया है जो उपभोक्ता के मन को छूने में कामयाब रहा। राग जैवंती पर आधारित इसके संगीत ने सबका मन मोह लिया। कुल चार पंक्तियों में अपनी बात कही गयी है, उसमें भी वाक्यांश दोहराये गये। दोहराने से वे स्मरणीय बने। भाषा सरल हिन्दुस्तानी है।
तंदुरुस्ती की रक्षा करता है लाइफबॉय लाइफबॉय है जहाँ, तंदुरूस्ती है वहाँ
सन्देश अत्यन्त सरल है। तंदरुस्ती लाइफबॉय यहाँ पर्याय बना दिये गये।
वॉशिंग पाउडर निरमा, क्लोज़ अप टूथपेस्ट, नैरोलैक पेंट्स, पॉन्ड्स क्रीम, अमूल मक्खन, लक्स साबुन आदि अनेक विज्ञापन ऐसे हैं जो समय-समय पर रेडियो और टेलीविज़न पर छाये रहे और आज भी हमारी स्मृति में दर्ज हैं। कैडबरी का एक विज्ञापन आया था जिसे पीयूष पांडे ने लिखा और जो रेडियो टेलीविज़न पर समान रूप से छाया रहा-
कुछ खास है…
हम सभी में…
कुछ बात है…
हम सभी में…
बात है
खास है
कुछ स्वाद है
क्या स्वाद है
ज़िन्दगी में…
कैडबरी चॉकलेट
इस विज्ञापन में भी लय महत्त्वपूर्ण है। टेलीविज़न में इस विज्ञापन में क्रिकेट के मैदान पर नाचती हुई लड़की दिखाई गयी थी।
लोगो के दिमाग में ब्रांड वैल्यू बैठा कर प्रचार
ब्रांड की सबसे बड़ी भूमिका यही होती है कि वह उत्पाद को एक पहचान देता है। आज, उपभोक्ता के उपयोग का कोई भी सामान क्यों न हो उसे एक नहीं कई-कई कम्पनियाँ बनाती हैं जो बड़ी, छोटी, मझोली कैसी भी हो सकती हैं। हर एक के पास उसका अपना बाज़ार-क्षेत्र भी है।
ऐसे में ब्रांड की प्रतिष्ठा का दायित्व विज्ञापन पर है। उदाहरण के लिए शीतल पेय के विज्ञापन देखिए। कोका कोला, पेप्सी, थम्स अप सभी एक प्रकार के उत्पाद हैं। सभी के गुण भी लगभग एक-से हैं लेकिन विज्ञापन इन तीनों ब्रांडों को अलग-अलग प्रस्तावित करता है। कोका कोला, ‘ठंडा मतलब कोका कोला’ बन कर चलता रहा, पेप्सी ‘ये प्यास है बड़ी’ , ‘यही है राइट चॉयस बेबी’ के रूप में विख्यात हुआ और थम्सअप ‘तूफानी ठंडा’ बन कर।
कहीं-कहीं तो ब्रांड उत्पाद का पर्याय हो जाता है जैसे नमक यानी ‘टाटा नमक’ ‘टाटा’ का नाम नमक से अभिन्न रूप से जुड़ा है। बाज़ार में नमक बनाने वाली और भी छोटी-बड़ी कम्पनियाँ हैं लेकिन टाटा ने ऐसा भरोसा उत्पन्न किया है कि बाज़ार में वह सबसे अधिक बिकने वाला ब्रांड है।
कभी-कभी जिस उत्पाद की कोई पहचान नहीं होती उसे भी ब्रांड बनाने का काम विज्ञापनों के माध्यम से होता है। फेविकोल, एशियन पेंट्स या फेयर एंड लवली जैसे छोटे उत्पादों को इतना बड़ा ब्रांड बनाने का श्रेय विज्ञापन को ही जाता है।
गाड़ियों के बाज़ार में आए दिन ऐसा होता है। जब भी किसी गाड़ी का नया मॉडल बाज़ार में लाँच होता है तो कम्पनी पहले ही ज़ोर-शोर से विज्ञापन देना शुरू करती है और गाड़ी आने से पहले ही हज़ारों की संख्या में गाड़ी की बुकिंग हो जाती है। विज्ञापन और ब्रांड की प्रतिष्ठा का गहरा सम्बन्ध है।
विज्ञापन को समय से जोड़ना
1983 में ‘इंस्टेंट नूडल्स’ के रूप में मैगी का विज्ञापन दिया गया। देखते ही देखते विज्ञापन हिट हो गया और उसके साथ ही वह नूडल्स भी सबकी पसन्द बन गया जो पहले हमारी भोजन-तालिकाओं में था ही नहीं।
बस 2 मिनट में मैगी तयैर के विज्ञापन ने भारतीय मार्किट को ऐसा कवर किया कि कोई भी दूसरे नूडल्स इसकी बराबरी नहीं कर पाए हैं।
विज्ञापन का काम आपके मन की इच्छा को खरीदारी में बदल देने का है। अतः इसकी भाषा में भी वह गुण होता है जो कि खरीदने की बेचैनी पैदा कर दे।
‘जल्दी कीजिए, ऑफर सिर्फ़ सीमित समय तक’
‘जल्दी घर ले आइए’
‘अब आसान किश्तों पर’
ये सभी अनुरोध कहीं-न-कहीं उपभोक्ता में सक्रिय प्रेरक प्रतिक्रिया जगाने के लिए ही किये जाते हैं।
मुहावरे और लोकोक्तियाँ
मुहावरे और लोकोक्तियाँ जीवन-अनुभव का सार प्रस्तुत करते हैं। प्रसिद्ध विज्ञापनों को मुहाबरों से जोड़कर लोगो तक पहुँचाया जाता है।
बेटा मन में लड्डू फूटा—- (कैडबरी शॉट्स)
घर घर का चिराग—(लूमिनस इन्वर्टर)
कर लो दुनिया मुट्ठी में —(रिलायंस मोबाइल)
डर के आगे जीत है—(माउंटेन डियू)
विज्ञापन के लिए हिन्दी-अंग्रेज़ी के कोड का मिश्रण
हंगरी क्या?—खुशियों की होम डिलीवरी (डोमिनो पिज्ज़ा)
यही है राइट चॉयस बेबी आहा ! (पेप्सी)
ठंडा-ठंडा कूल कूल (नवरत्न तेल)
मिर्ची सुनने वाले ऑलवेज़ ख़ुश (रेडियो मिर्ची)
केंच का कोई मैच नहीं (कैच मसाले)
हाथ-मुँह-बम, बीमारी होगी कम (डोमेक्स)
एलो वेरा एक फायदे अनेक (जॉय बॉडी लोशन)
अब जहाँ आम बार चलेगा एक बार, नया विम बार चलेगा… और चलता रहेगा (विम बार)
असली आँवला, डाबर आँवला (डाबर हेयर ऑयल)
स्वच्छ आदत, स्वच्छ भारत (हिन्दुस्तान लीवर)
आठ साल के बूढ़े या आठ साल के जवान (झंडू केसरी जीवन)
टमी भी खुश, मम्मी भी खुश (नॉर सूप)
टेढ़ा है पर मेरा है (कुरकुरे)
भेजा फ्राई तो सेवन अप ट्राई (सेवेन अप)
टाइड है तो व्हाइट है (टाइड)
इसको लगा डाला तो लाइफ झिंगालाला (टाटा स्काई)
’जियो जी भर के’ (रिवाइटल)
’छोटे-छोटे छेद भरे सड़न होने से पहले’ (पेप्सोडेंट)
’सिर्फ जुबान पर लगाम लगाता है हाथ पर नहीं’ (सेंटर फ्रेश)
खाए जाओ, खाए जाओ… यूनाइटेड के गुण गाए जाओ (यूनाइटेड प्रेशर कुकर)
’छोड़ो लाइन / हो जाओ / ऑनलाइन‘
’सबको ख़बर दे, सबकी ख़बर ले’
दूध-सी सफेदी निरमा से आये, रंगीन कपड़ा भी खिल-खिल जाए। (निरमा वॉशिंग पाउडर)
आप भी पाइये रेशम-सी कोमल त्वचा (विवेल सोप)
मच्छरों का यमराज (ऑल आउट)
दाग अच्छे हैं (सर्फ एक्सेल)
न डर है कभी / न झुकाएँगे कभी (एचडीएफसी लाइफ इंश्योरेंस)
रूफ अफ़्ज़ा Go Greedy
दर्द मिटाए चुटकी में (हेमानी फ़ास्ट रिलीफ)
लोटाएं नये जैसी चमक (रिन)
क्या आपके बाल भी हँसते खिलखिलाते हैं? (अमूर हर्बल शैम्पू)
मुँह रखे जो तेजी से समाए, गरमाहट लाये और दे दर्द से तुरन्त राहत…
आह से आहा तक (मूव क्रीम)
’ऊषा है तो आशा है’ (ऊषा पंखे)
मेरे घर में खरोंच रहती है, infection नहीं
क्योंकि यहाँ रहता है Dettol antiseptic
ये देता है सौ बीमारी वाले germs से सुरक्षा
तभी तो मैं मानूँ सिर्फ Dettol का धुला
Dettol be 100% sure
निष्कर्ष
पहले समय में चीज़ें लोगों की ज़रूरतों के हिसाब से बनती थी लेकिन विज्ञापन के युग में ऐसा है कि आप चीज़ें बना दो, विज्ञापन के जरिये जरूरतें हम पैदा कर देंगे।
विज्ञापन के इस दौर में अपनी जरूरतों पर ध्यान देना बहुत जरुरी है। हर कोई यहाँ आपको कुछ न कुछ बेचने के लिए बैठा है। अपनी जरूरतें पहचाने और फिर खरीददारी करें।