फिलिस्तीन से यहूदियों का सम्बन्ध प्राचीनकाल से ही था। हिब्रू बाइबल के अनुसार जेरुसलम ही वो जगह है जहाँ पर यहूदी धर्म की शुरुआत हुई थी। परन्तु इस शहर पर बहुत बार आक्रमण हुए। जब अलग अलग शासन के दौरान इन पर भयंकर अत्याचार हुए तो इन्होंने अन्य देशों में जाकर शरण ली।

भारत में जो 5000 के लगभग यहूदी हैं वो उससे समय भारत आये थे। उस समय यहूदी अपनी जान बचाते हुए सारे यूरोप में फैल गए। ये व्यवसायी एवं परिश्रमी थे। अतः ये व्यापार और पैसा कमाने के मामले में हर जगह सफल रहे।

इसी कारण स्थानीय जनता इनसे घृणा करने लगी । अनेक देशों में सरकारी तौर पर इन्हें नष्ट किया गया। ऐसी स्थिति में भी यहूदी अपने को एक राष्ट्र मानते रहे और उस दिन का इन्तजार करते रहे जबकि पुनः इन्हें राष्ट्रीय आवास प्राप्त हो।

विभिन्न देशों से उत्पीड़ित तथा निष्कासित अवस्था में यहूदियों के समक्ष केवल एक मार्ग रह गया था कि वह अपनी बाइबिल में वर्णित अपने राजा दाऊद(ये राजा सोलोमन जिन्होंने पहली बार टेम्पल माउंट का निर्माण करवाया था उनके पिता थे ) के निवास स्थान को ही अपना लक्ष्य बनायें।

रूस तथा पूर्वी यूरोप से भारी संख्या में यहूदी भगाये जाने लगे । यहूदियों ने फिलीस्तीन वापिस चलो‘ आन्दोलन प्रारंभ किया और भारी संख्या में यहूदी टिड्डी दलों के समान फिलीस्तीन की ओर चल पड़े। डॉ० थियोडोर हज्लं ने यहूदी समस्या पर एक पुस्तक लिखी, जिसमें उन्होंने यहूदियों की राष्ट्रीय आकांक्षाओं को प्रोत्साहित किया।

1817 में यहूदियों ने एक सम्मेलन स्विटजरलैंड में किया और इस सम्मेलन में उन्होंने अपने लिए एक राष्ट्रीय घर की मांग की । 1902 में रूस में यहूदियों पर अत्याचार होने लगे, फलस्वरूप यहूदी अपने अति प्राचीन गृह फिलीस्तीन की ओर कूच करने को बाध्य हुए।

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यहुदिओं को इजराइल के रूप में अलग देश की ज़रूरत क्यों पड़ी

यहुदिओं को अलग देश की जरुरत पड़ी इसके मुख्यत: 2 कारण थे

1.यहूदियों का देश बहिष्कार और यहूदी आंदोलन जायनवाद’ या यहूदीवाद

यहूदियों का कोई देश न होने के कारण यहूदी कई देशों में स्थापित हो गए थे। परन्तु जिन देशों में भी यहूदी रहते थे, वहां उनके साथ दुर्व्यवहार होता था। यदि इतना ही होता तो भी यहूदी सहन लेते परन्तु कई देशों से यहूदी बहिष्कृत किए जाने लगे।

1881 में रूस और रूमानिया में यहूदियों पर क्रूर और भीषण अत्याचार किये गये और उनको वहां से भागना पड़ा। उनका न कोई घर था, न देश।

क्योंकि ‘फिलीस्तीन यहूदियों का मूल निवास था, अतः उन्होंने अन्य देशों के अत्याचारों से पीड़ित होकर, अपने देश को दोवारा पाने के लिए आन्दोलन शुरू किया।

यह आन्दोलन ‘जायनवाद’ या यहूदीवाद’ इसीलिए कहलाया क्योंकि बाइबिल के वर्णनानुसार जियोन जेरुसलेम की उस पहाड़ी का नाम है जहां यहूदियों के प्रसिद्ध राजा दाऊद और उसके उत्तराधिकारियों का राजकीय निवास स्थान था।”

2.हिटलर द्वारा यहुदिओं का संहार

हिटलर के उत्थान के समय जर्मनी में यहूदी भारी संख्या में निवास कर रहे थे परन्तु हिटलर देश के हित में यहूदियों को देश से निकाल देना चाहता था।

उसका विश्वास था कि प्रथम युद्ध की पराजय का एक कारण जर्मन के यहूदियों की देशद्रोहिता है। इसके अतिरिक्त हिटलर आर्य जाति का था और वह यहूदियों से जलता था।

हिटलर के शासन काल में यहूदियों पर भयानक अत्याचार हुए और हिटलर ने लगभग 60 लाख यहूदियों को मौत के घाट उतार दिया । इस कारण यहूदी भारी संख्या में जर्मनी छोड़कर जेरूसलम की ओर चल पड़े।

डॉ० बाइत्समान ने प्रथम विश्व युद्ध में ब्रिटेन की सहायता करके इजराइल की स्थापना का बचन लिया

अंग्रेजो ने भी यहुदिओं के लिए एक अलग देश इजराइल का समर्थन किया। अंग्रेजों के यहूदी समर्थन का एक कारण यह भी था कि डॉ० बाइत्समान नामक यहूदी समर्थक व्यक्ति ने प्रथम महायुद्ध के मध्य टी० एन० टी० नामक विस्फोटक के निर्माण द्वारा अंग्रेजी सरकार को युद्ध में सहायता दी थी। अंग्रेजी शासन उनसे इतना प्रसन्न हुआ कि ‘मुंह मांगी मुराद’ मांगने को कहा।

डॉ० बाइत्समान ने फिलीस्तीन में यहूदी राज्य की मांग की। अंग्रेजी शासन द्वारा उनकी मांग स्वीकार कर ली गई तथा लॉयड जार्ज ने यहूदियों के राज्य की स्थापना का वचन दे दिया। युद्ध के मध्य फिलीस्तीन का अधिकांश भाग अंग्रेजी आधिपत्य में आ चुका था।

ब्रिटेन ने बड़ी चालाकी से एक जगह के लिए 3 समझौते कर लिए

ब्रिटेन ने 3 अलग अलग समझौतों के अंतर्गत एक ही जमीन को 3 अलग अलग लोगों को देने का वादा दिया ।

  • हुसैन-मैकमोहन समझौते के अंतर्गत अरबियों को एक पूरी तरह से अलग देश देने का वादा किया गया था।
  • बाल्फोर समझौते के अंतर्गत यहूदियों को अलग यहूदी राज्य देने का वादा कर दिया गया था।
  • साइकस-पिकाट(Sykes-Picot) के अंतर्गत ब्रिटिश और फ्रांस के बीच साम्राज्य का बंटवारा हो गया।

अंग्रेजो ने अरब लोगो को फिलिस्तीन देने का बचन दिया था

1914 में प्रथम विश्व युद्ध की शुरुआत हो चुकी थी। जेरुसलम और उसके आस पास के इलाकों में भी ब्रिटेन और तुर्क साम्राज्य (ottoman empire) के बीच युद्ध चल रहा था।

इसी बीच 1914 में ब्रिटिश प्रतिनिधि हेनरी मैकमोहन एक प्रस्ताव लेकर मध्य पूर्व(middle east) के अरब लोगों के नेता हुसैन इब्न अली पास जाते हैं।

प्रस्ताव में था कि यदि अरब लोग तुर्कों के साथ लड़ने में ब्रिटेन की सहायता करते हैं तो ब्रिटेन उनको एक अलग स्वतंत्र अरब देश देगा जिस पर सिर्फ अरब लोगों का अधिकार होगा।

अब एक तो अरब लोग तुर्क साम्राज्य (ottoman empire) को मध्य पूर्व(middle east) से बाहर निकलना चाहते थे और दूसरा, क्यूंकि उस समय जिओनिज़म(यहूदीवाद) आंदोलन जोरो शोरों से चल रहा था इसलिए अरब लोगो को ये भी डर था कि यहूदी मध्य पूर्व(middle east) में वापस आकर यहाँ पर अपना कब्जा जमा सकते हैं।

इन दो कारणों की वजह से अरब लोगो ने मैकमोहन के प्रस्ताव ,जिसे हुसैन-मैकमोहन प्रस्ताव भी कहा जाता है, को मान्यता देकर उस पर हस्ताक्षर कर दिए।

(बाल्फोर घोषणा, (2 नवम्बर, 1917 ई0) के अंतर्गत यहुदिओं को उनकी जमीन वापस देने का वादा

जहाँ एक ओर ब्रिटेन अरब लोगों को मध्य पूर्व(middle east) में एक अलग देश देने का बचन दे चूका था वहीं दूसरी ओर ब्रिटिश विदेश मंत्री लार्ड वालफोर ने 2 नवम्बर, 1917 को संसद में ये घोषित कर दिया कि ब्रिटिश सरकार फिलिस्तीन में यहूदी जाति के लिए एक राष्ट्रीय निवास स्थान के पक्ष में है और यहूदियों को जमीन दिलवाने की पूरी कोशिश करेगी।

बालफोर का यह घोषित करना बोलफोर घोषणा कहलाई । उन्होंने ये भी कहा कि यह भी स्पष्ट समझ लेना चाहिए कि फिलीस्तीन के गैर यहूदी निवासियों को किसी प्रकार की हानि नहीं पहुंचाई जायेगी।

बाल्फोर घोषणा ने यहयूदियों को प्रसन्न किया, वहीं अरब अंग्रेजों की इस नीति से नाराज हो गये। बाल्फोर घोषणा की खबर जब नेता शरीफ हुसैन(अरबों लोगों के राजा) को मिली, तो उसने इसके स्पष्टीकरण की मांग की।

इसलिए ब्रिटिश सरकार ने डेविड जॉर्ज होगार्थ को उनके पास जनवरी 1918 को भेजा, इसने शरीफ हुसैन को आश्वासन दिया कि “यहूदियों को पैलेस्टाइन में अरबों की राजनीति एवं आर्थिक स्वतन्त्रता को ध्यान में रखकर ही बसने दिया जाएगा ।

इस पर शरीफ हुसैन ने भी इस प्रस्ताब को मान्यता दे दी। इस प्रकार फिलिस्तीन में यहूदी राष्ट्रीय आवास के स्थापना की भूमिका निर्मित हो गई।

इजराइल के बनने में साइकस-पिकाट(Sykes-Picot) समझौता और पलेस्टाइन मैंडेट का योगदान

जहाँ तक साइकस-पिकाट(Sykes-Picot) समझौते की बात है ये समझौता ब्रिटेन और फ्रांस के राजनयिकों मार्क साइक्स और फ्रांकोइस जोर्गेस-पिकाट के बीच हुआ।

इन्ही दोनों के नाम पर इस समझौते को साइकस-पिकाट का नाम दिया गया। ये समझौता प्रथम विश्व युद्ध के समय गुप्त रूप से किया गया था।

इस समझौते में ये तय किया गया कि यूनाइटेड किंगडम,फ्रांस,रूस और इटली इन सभी के बीच तुर्क साम्राज्य (ottoman empire) के हारने के बाद उसके साम्राज्य को बाँट लिया जायेगा।

तुर्क साम्राज्य(ottoman empire) को जीतने में ब्रिटेन और फ्रांस ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी इसलिए इन दोनों के बीच तुर्क साम्राज्य (ottoman empire) के बहुत बड़े हिस्से को बाँटा गया। लेकिन रूस जो पहले ही इस युद्ध से अलग हो गया था उसे कुछ नहीं मिला।

इस प्रकार ब्रिटेन 3 अलग अलग समझौतों के अंतर्गत एक ही जमीन को 3 अलग अलग लोगों को देने का वादा कर चूका था।

अरबों का यहुदिओं के खिलाफ विद्रोह

1919 ई0 में फिलिस्तीन में यहूदियों की संख्या सिर्फ 55000 थी जो आबादी का आठ प्रतिशत थी जबकि अरब नब्बे प्रतिशत थे। अब यहूदी भारी तादाद में बाहर से आने लगे और उनकी संख्या बढ़ने लगी।

ब्रिटिश सरकार यहूदियों का पक्ष ले रही थी यहूदी सम्पन्न एवं शिक्षित थे तथा अरब निरक्षर, निर्धन एवं पिछड़े थे इससे अरबों के अधिकार की रक्षा नहीं हो सकी।

फलस्वरूप अरबों ने विद्रोह एवं मार-काट का सहारा लिया। अरब अनेक यहूदियों को मौत के घाट उतारने लगे।

पलेस्टाइन मैंडेट का आरम्भ

25 अप्रैल, 1920 ई0 को जब सुप्रीम कौंसिल ने फिलिस्तीन को ब्रिटेन हाथों सौंप दिया, तो वहां पर से सैनिक शासन का अन्त कर असैनिक शासन कायम किया गया

और प्रथम ब्रिटिश हाई कमिश्नर सर हर्बर्ट सैमुएल ने 1 जुलाई, 1920 ई0 को प्रशासनिक भार सम्भाला, इन्होंने अपने उत्तरदायित्व का पालन करने में देर नहीं लगाई तथा सितम्बर महीने में बाहर से आने वाले यहूदियों की प्रथम वार्षिक संख्या 16,500 निश्चित कर दी ।

इस प्रकार प्रतिवर्ष उनकी एक निश्चित संख्या आकर बसने लगी और उनकी संख्या में निरन्तर बृद्धि होने लगी। सैमुएल ने एक कौसिल की स्थापना की जिसमें 22 सदस्य रखे गये।

इसमें आठ मुसलमान दो यहूदी तथा दो ईसाइयों को स्थान दिया गया और दस सदस्यों के मनोनयन की व्यवस्था की गई। परन्तु, अरबों को इस व्यवस्था से संतोष नहीं था क्योंकि इस व्यवस्था में गैर अरब बहुमत कायम रहता था।

अरबों का यहूदियों के खिलाफ विद्रोह

अरबों ने एक प्रतिनिधि संसदीय सरकार की स्थापना, यहूदियों के आगमन पर रोक तथा यहूदियों के अरबों से जमीन खरीदने पर प्रतिबन्ध की मांग की और 1921 ई० एक भीषण विद्रोह कर दिया। इससे फिलिस्तीन में आतंक छा गया और धन-जन की काफी हानि हुई।

ऐसी अवस्था में तत्कालीन ब्रिटिश उपनिवेश सचिव विंस्टन चर्चिल ने जून, 1922 ई० में एक ‘श्वेत-पत्र’ (White Paper) का प्रकाशन कर ब्रिटिश नीति की घोषणा की।

इसमें उन्होंने स्पष्ट कर दिया कि “ब्रिटिश नीति का आधार पैलेस्टाइन में यहूदी राज्य कायम करना नहीं है और वहाँ पर उनके आवास की व्यवस्था भी, उसी हद तक करनी है जहां तक उस देश की आर्थिक अवस्था बर्दास्त कर सके।”

इस घोषणा को यहूदियों ने स्वीकृत किया परन्तु इसमें अरब की मांगों पर ध्यान नहीं दिया गया। यहूदियों के आगमन पर भी रोक नहीं लगाई गई

तथा 1927 तक उसकी सँख्या 150,000 पार कर गई। अब प्रति वर्ष नए यहूदी आकार बसने लगे। वे काफी संगठित थे तथा विश्व-यहूदी-संघ की दौलत उनके पीछे थी।

निर्धन अरब अपनी जमीन एवं जायदाद से धीरे-धीरे बंचित होने लगे। इससे अरबों को यह चिन्ता होने लगी कि यहूदी सारे जमीन के मालिक बन बैठेंगे और वे बेघरबार हो जायेंगे। इससे उनमे रोष की भावना बढ़ती गई।

यहूदियों और फिलीस्तीनीओं के बीच पहला विवाद “western wall” या “पश्चिमी दीवार” को लेकर हुआ

अगस्त 1929 ई० दोनों जातियों के बीच एक भीषण संघर्ष छिड़ गया। इस संघर्ष का आरम्भ जेरूसलेम स्थित पवित्र दीवार “western wall” या “पश्चिमी दीवार” के नजदीक पूजा को लेकर हुआ। यह दीवार एक यहूदी मन्दिर टेम्पल माउंट का बचा हुआ हिस्सा तथा एक मुस्लिम मस्जिद का हिस्सा था।

अतः दोनों इसे पवित्र मानते थे और इस लिए झगड़ पड़े। इसमें दोनों तरफ के सौ से अधिक व्यक्ति मारे गये और सैकड़ों घायल हो गए।

कितनी बस्तियां जलाकर खाक कर दी गयीं और यह विद्रोह जेरूसलेम के अतिरिक्त जाफा आदि शहरों में भी फैल गया और अन्त में ब्रिटिश वायुसेना की मदद से दबाया जा सका।

इसके ‘पवित्र दीवार’ के स्थायित्व की जांच के लिए राष्ट्र संघ ने मई 1930 ई0 मे एक जांच कमीशन की नियुक्ति की तथा दूसरी ओर ब्रिटिश सरकार ने सर जॉन होय सिम्पसन को फिलिस्तीन की समस्या की जांच के लिए नियुक्त किया।

सिम्पसन रिपोर्ट तथा उसकी प्रतिक्रिया

सर जॉन सिम्पसन ने पैलेस्टाइन की समस्या की जांच की तथा अपनी रिपोर्ट अक्टूबर, 1930 ई० में पेश की। इस रिपोर्ट में उन्होंने समस्या के मौलिक कारणों की तरफ ब्रिटिश सरकार का ध्यान आकर्षित किया

तथा यह घोषित किया कि यहूदियों के अवैध आगमन से अरबों को भीषण क्षति हुई है तथा उनकी 250,000 एकड़ कृषि योग्य भूमि यहूदियों के हाथ में चली गई है।

इससे अरबों को नई आशा बंधी, परन्तु विश्व-यहूदी संघ ने वाल्फोर घोषणा की दुहाई देते हुए ब्रिटिश सरकार को यहूदी राष्ट्रीय आवास की स्थापना की शर्तों के पालन के लिए बाध्य किया।

यहूदियों के समर्थक ब्रिटेन एवं संयुक्त राज्य अमेरिका में भरे हुए थे और प्रचार के जबर्दस्त साधन उनके पास मौजूद थे। अतः ब्रिटिश सरकार उनकी मांगों की अनदेखी नहीं कर सकती थी। इसके अतिरिक्त 1930 ई० में विश्वव्यापी आर्थिक मन्दी के कारण भी यहूदियों की भारी संख्या फिलिस्तीन में आने लगी।

इसके बाद 1933 ई० में जर्मनी में हिटलर का उदय हुआ और उसने यहूदियों पर अत्याचार आरम्भ किया। परिणामस्वरूप सिर्फ 1935 ई० में ही साठ हजार से अधिक यहूदी फिलिस्तीन पहुंचे और उनकी आबादी तीन लाख से अधिक हो गई।

ऐसी अवस्था में अरबों ने एक पैलेस्टाइन अरब-सम्मेलन (Palestine Arab Conference) एवं अरब उच्चतम समिति (Arab Higher Committee) की स्थापना की थी।

प्रसिद्ध अरब नेता जेरूसलेम के मुफ्ती हज अमीन अलहुसैनी (Haj Amin-al Husseni) ने अरबों को आन्दोलन के लिए प्रोत्साहित किया।

अतः नवम्बर, 1935 ई० में अरबों ने तत्कालीन ब्रिटिश हाई कमिश्नर सर आर्थर बौचोप (Sir Arthur Wauchope) के समक्ष, प्रतिनिधि सरकार की स्थापना, भूमि-बिक्री पर प्रतिबन्ध तथा यहूदी आगमन के स्थगन की मांगें रखीं।

ब्रिटिश हाई कमिश्नर ने 28 सदस्यों की एक विधान-सभा का प्रस्ताव रखा जिसमें पांच सरकारी और 23 गैर-सरकारी सदस्यों का स्थान रखा गया।

इसके अतिरिक्त उसने एक आर्डिनेंस की बात की जिसके अनुसार अरबों द्वारा अपने पोषण के लिए अपेक्षित भूमि की बिक्री पर प्रतिवन्ध लगाने की चर्चा की गयी।

इसे अरबों ने स्वीकृत किया, परन्तु यहूदियों ने अस्वीकृत कर दिया। फलतः यह प्रयास निष्फल गया। इससे अरबों में काफी असन्तोष फैला।

इनके बीच जर्मन एवं इटालियन प्रोपगंडा काफी जोरों पर चल रहा था एवं मिस्र तथा सीरिया में भी राष्ट्रवादियों का भीषण आन्दोलन चल रहा था।

अतः अप्रैल 1936 ई० में अरब असंतोष ने विस्फोट का रूप धारण कर लिया तथा अरबों ने आम हड़ताल घोषित कर दिया एवं गुरिल्ला युद्ध का सहारा लिया।

इस विद्रोह ने व्यापक रूप धारण कर लिया तथा भारी संख्या में ब्रिटिश सेना इस क्षेत्र में भेजी गई। नवम्बर 1936 ई० तक यह विद्रोह क्रूरतापूर्वक दबा दिया गया और प्रमुख अरब नेता कैद कर लिए गये तथा हज अमीन-हुसेनी ने सीरिया भागकर जान बचाई।

ऐसी अवस्था में ब्रिटिश सरकार ने समस्या के समाधान के लिए ‘राजकीय-कमीशन’ की नियुक्ति की। इस कमीशन ने नवम्बर, 1936 ई० में अपना कार्य आरम्भ किया तथा जुलाई 1937 ई० में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की।

राजकीय कमीशन रिपोर्ट (जुलाई, 1937 ई0) तथा फिलिस्तीन और इजराइल का बिभाजन

राजकीय कमीशन ने दोनों पक्षों के नेताओं से साक्षात्कार किया तथा अन्त में उन्होंने अपना निर्णय फिलिस्तीन के विभाजन के पक्ष में दिया।

1937 ई० में यहूदियों की संख्या चार लाख के लगभग हो गई थी और ये आबादी में 34 प्रतिशत हो गये थे। अतः कमीशन ने यह सुझाव दिया कि उत्तरी फिलिस्तीन में जहां यहूदियों का बहुमत था वहां एक यहूदी राज्य कायम किया जाए ।

जेरूसलेम, नजारेय, गैलिली और वेद्यलेहम आदि पवित्र तीर्थ-स्थानों के लिए ब्रिटिश मैडेट शासन को कायम रखने और जाफा के बन्दरगाह एवं उससे सम्बन्धित मार्ग-क्षेत्र भी इसी में शामिल रखने पर जोर दिया गया। शेष क्षेत्र को ट्रांसजोर्डन से मिलाकर एक संगठित अरव राज्य की स्थापना का प्रस्ताव रखा गया।

इस नई व्यवस्था की स्थापना के बाद विभिन्न इकाइयों के बीच सन्धि एवं राष्ट्र-संघ द्वारा मान्यता प्राप्त करने का भी जिक्र किया गया।

परन्तु इससे अरब तथा यहूदी दोनों असंतुष्ट थे। यहूदी जेरूसलेम से अलग नहीं रहना चाहते थे तथा नई व्यवस्था से जाफा का बन्दरगाह एवं जोर्डन के किनारे स्थिति उनके जल बिधुत यन्त्र और मुर्दासागर स्थित पाँटास के कारखाने उनके हाथ से निकल जाते थे।

अरबों को भूमध्यसागर से कोई भी सीधा सम्बन्ध नहीं रह जाना था और अरब क्षेत्र भी काफी छोटा हो जाता था। अतः दोनों दलों ने इसे अमान्य घोषित कर दिया और अरबों की तरफ से इराक ने राष्ट्र संघ में इसका विरोध किया। अरबों ने अपने आतंकपूर्ण कार्यों को जारी रखा।

ऐसी अवस्था में ब्रिटेन के अनुरोध से राष्ट्र संघ में पैलेस्टाइन के विभाजन की योजना तैयार करने के लिए 1938 ई० में नई कमीशन की नियुक्ति की जिसके अध्यक्ष ‘वुडरेड’ (Woodhead) महोदय थे।

इस कमीशन ने विभाजन के सम्बन्ध में एक वृहत् मशविदा पेश किया, जिससे ब्रिटिश सरकार ने अव्यावहारिक समझकर नामन्जूर कर दिया एवं फरवरी, 1939 ई० में अरब तथा यहूदी प्रतिनिधियों का एक गोलमेज सम्मेलन, लन्दन में बुलाया।

लन्दन सम्मेलन (फरवरी-मार्च, 1939) और श्वेत पत्र (1 मई, 1939 ई0)

लन्दन-सम्मेलन में दोनों दलों के प्रतिनिधियों के अतिरिक्त इराक, मिस्र, सउदी अरब, यमन तथा ट्रांसजोर्डन से भी प्रतिनिधियों को निमन्त्रित किया गया। परन्तु अरबों में यहूदियों के प्रति भीषण घृणा थी तया उन्होंने यहूदियों के साथ बैठने से भी इंकार कर दिया।

उन्होंने स्वतंत्र अरब राज्य की मांग रखी तबा यहूदी भी बाल्फोर घोषणा के पूरा करने की दुहाई देते रहे। अतः यह सम्मेलन असफल रहा

तथा मार्च में भंग कर दिया गया। इस समय यूरोप में युद्ध के बादल छा रहे थे और जर्मनी अरबों के बीच ब्रिटिश विरोधी प्रचार कर रहा था। भावी युद्ध में अरब सहयोग का काफी मूल्य था।

अतः 17 मई, 1939 ई० को ब्रिटिश सरकार ने एक श्वेत-पत्र में पैलेस्टाइन सम्बन्धी नीति की घोषणा की। इसके अनुसार उसने दस साल के अन्दर पैलेस्टाइन की स्वतंत्रता का प्रस्ताव रखा तथा अगले पांच वर्षों के लिए, आगंतुक यहूदियों की संख्या 75000 अन्तिम रूप से निश्चित कर दी गई जिसके बाद उनके आगमन पर प्रतिबन्ध लगाने का प्रस्ताव रखा गया।

भूमि-विक्री के लिहाज से फिलिस्तीन को तीन भागों में विभक्त कर दिया गया। प्रथम हिस्से में भूमि बिक्री की पूर्ण छूट दी गई, दूसरे हिस्से में इसे नियंत्रित रखने की व्यवस्था की गई तथा तृतीय हिस्से में इस पर रोक लगा दी गई।

इसके साथ ब्रिटेन ने घोषणा की कि राजनीतिक दृष्टि से अब फिलिस्तीन में अधिक यहूदियों का प्रवेश असम्भव है। और इसी समय सितम्बर 1939 ई० में द्वितीय महायुद्ध का आरम्भ हो गया और एक नई राजनीतिक स्थिति कायम हो गई।

द्वितीय विश्व युद्ध और पैलेस्टाइन की समस्या (1939-1945 ई0)-

सितम्बर, 1939 ई०- में द्वितीय विश्व युद्ध के विस्फोट से फिलिस्तीन में सामयिक शान्ति उपस्थित हो गई। पैलेस्टाइन का सामरिक महत्व काफी व्यापक था।

अतः यहां काफी संख्या में ब्रिटिश फौजों का जमाव हो गया और आंतकवादिओं का कार्य मुश्किल हो गया। इसलिए युद्ध-काल में अरब एवं यहूदियों ने पारस्परिक शान्ति की नीति अपनाई।

युद्ध काल के आरम्भ में सर्वत्र जर्मनी की विजय हुई, यहूदियों का संहार हो रहा था इसलिए बाहर से काफी यहूदी पैलेस्टाइन आने लगे।

परन्तु 1940 ई० में ही ब्रिटिश हाई कमिश्नर ने जमीन की विक्री एवं यहूदियों के आगमन को नियंत्रित कर दिया। इससे यहूदियों में काफी असंतोष था। क्यूंकि ये वही दौर था जब हिटलर द्वारा यहूदियों का दमन हो रहा था।

यहूदियों ने इस काल में कई गुप्त आतंकवादी संगठन कायम किये जिनमें प्रमुख थे

  • हगाना (Haganah)
  • इरगून ज्वाय ल्यूमी (Irgun Zvai Leumi)
  • स्टर्न दल (Stern Gang)

ये काफी संगठित थे तथा आरम्भ में आत्मरक्षा के हेतु संगठित हुए थे। ये यहूदियों पर लगे प्रतिबन्धों का जबर्दस्त विरोध करते थे।

जब ब्रिटिश अधिकारी ने अवैध रूप से आने वाले यहूदी आगंतुकों पर रोक लगाई तो यहूदी आतंकवादियों ने एक पुरे भरे हुए जहाज को समुद्र में ही डुबा दिया

इस प्रकार पात्रिया (Patria) को हफा बन्दरगाह के नजदीक एवं स्टूमा (Struma) को काबासागर में डुबा दिया गया।

अब ऐसी अवस्था में ब्रिटिश अधिकारियों पर भी आक्रमण होने लगे। ब्रिटिश हाई कमिश्नर सर हेरोल्ड मैक माइकेल (Sir Harold Mac Maichael) पर बम फेंका गया तथा 2 नवम्बर, 1941 को कैरो स्थित ब्रिटिश राजदूत लार्ड मायन (Lord Moyne) की हत्या की गई।

इसके अतिरिक्त पुलिस दफ्तर, रेलवे लाइनों तथा अन्य ऑफिसों पर आतंकवादियों ने आक्रमण आरम्भ किया और ब्रिटिश सेना के केन्द्र किंग डेविड होटल को बम से उड़ा दिया गया।

इस काल में अमेरिका की राजनीति में यहूदियों का काफी प्रभाव था और वे यहूदियों की मांग के पक्ष में अमेरिका में आन्दोलन कर रहे थे।

1942 ई0 के मध्य में जब नाजी-पक्ष कमजोर दिखाई देने लगा तो डेविडे-बेनगुरियन में 11 मई, 1942 ई0 को न्यूयार्क में यहूदियों की एक सभा बुलाई तथा एक वाल्टीमोर योजना (Baltimore Programme) पेश की । इसके अनुसार इन्होंने तीन उद्देश्य रखे-

  • पैलेस्टाइन में यहूदी राज्य की स्थापना
  • एक यहूदी-सेना का निर्माण तथा
  • यहूदियों के पैलेस्टाइन मे बसने की पूरी आजादी।

इस समय संयुक्त राज्य में यहूदियों का काफी राजनीतिक प्रभाव था। फरवरी, 1944 ई० में ही कांग्रेस में फिलिस्तीन में यहूदी राज्य कायम करने के लिए प्रस्ताव लाये गये थे।

युद्ध की समाप्ति पर पूर्वी यूरोप एवं जर्मन कैद से मुक्त यहूदी, फिलिस्तीन में बसने की मांग करने लगे। संयुक्त राज्य के नये राष्ट्रपति टूमेन (Truman) ने यहूदियों के प्रति दिलचस्पी दिखाई और 31 अगस्त, 1945 ई0 को ब्रिटिश प्रधान मंत्री ऐटली (Attlee) को एक लाख यहूदियों को पेलेस्टाइन में शीघ्र बसने की अपील की।

ऐसी अवस्था में एटली ने एक संयुक्त आग्ल-अमेरिकी जांच-समिति की स्थापना का प्रस्ताव रखा, जिसमें दोनों देश मिलकर इस समस्या का निदान करें।

1947 में ब्रिटेन ने ये मामला यूनाइटेड नेशन को भेज दिया और 15 मई 1948 को पलेस्टाइन छोड़ने का फैंसला किया।

यूनाइटेड नेशन में इस समस्या के सम्बन्ध में एक प्रस्ताव पेश किया ये प्रस्ताव वास्तव में पलेस्टाइन को विभाजित करने का प्रस्ताव था इसके अनुसार इस जमीन को 3 हिस्सों में बाँटने पर जोर दिया गया। इसमें कहा गया

  • एक बनेगा यहूदी राज्य
  • एक बनेगा फिलिस्तीन राज्य
  • और येरुसलम यूनाइटेड नेशन का सञ्चालन यूनाइटेड नेशन के द्वारा किया जायेगा

यूनाइटेड नेशन में इस प्रस्ताव को लेकर विभिन्न देशों से बोटिंग करवाई गई।

  • यूनाइटेड नेशन में इस प्रस्ताव के पक्ष में 33 वोट पड़े
  • विपक्ष में 13 वोट पड़े
  • और 10 देशों ने इसमें वोट डालने से इंकार किया।

भारत ने इसके विपक्ष में वोट डाला था। और अरब देशों के अलावा भारत अकेला देश था जिसने इस प्रस्ताव के विपक्ष में वोट डाला था।

पंडित जवाहर लाल नेहरू और उनकी बहन विजयलक्ष्मी पंडित जो उस समय UN की सदस्य थी उनको इसके पक्ष में वोट डालने के लिए डराया गया।

उनको कई लालच भरी और धमकी भरी फ़ोन कॉल आई। कई देशों को ‘यूनाइटेड नेशन की तरफ से पैसे देकर वोट डलवाया गया था।

लेकिन उन्होंने फिर भी इसके खिलाफ वोट डाला। 14 मई 1948 को डेविडे-बेनगुरियन ने इसराइल राज्य की घोषणा कर दी।

इसके तुरंत बाद अमेरिका और रूस ने इसको मान्यता प्रदान कर दी। और इस तरह से पलेस्टाइन में फिलिस्तीन और इसराइल 2 देशों का निर्माण हुआ।

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शिया मुसलमान और सुन्नी मुसलमान का इतिहास इन हिंदी