पूरी दुनिया की आबादी लगभग 7अरब है। पूरी दुनिया में कई धर्मो को मानने वाले लोग रहते हैं जिनमे से ईसाई, मुस्लिम, हिन्दू और बौद्ध धर्म आज भी कायम हैं। परन्तु इन धर्मो के बीच कई छोटे धर्म (minority community) अपना अस्तित्व बचाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।

अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा एक धर्म ऐसा भी है जो काफी पुराना है उस धर्म का नाम है जरथुस्त्र धर्म यानि पारसी धर्म। ये धर्म क्या है। इसकी शुरुआत कहाँ से हुई और फिर पारसी भारत कैसे आये। ये सब समझने से पहले हम पारसियों के भारत के विकास में योगदान के बारे में जान लेते हैं

भारत को मजबूत बनाने में पारसियों का योगदान

विश्व स्तर पर भारत को मजबूत बनाने में पारसी समाज का महत्वपूर्ण योगदान रहा हैं। इनमे सबसे पहला नाम जमशेदजी टाटा का आता है। इस नाम को भारत ही नहीं बल्कि विदेशों में भी पहचान मिली है। जमशेदजी टाटा ने टाटा ग्रुप की नींव रखी थी।

JRD टाटा या जहाँगीर रतन जी दादा भाई टाटा भारत के पहले पायलट हैं जिनको हवाई जहाज उड़ाने का लाइसेंस मिला था।

1932 में देश के पहले एअरलाइन्स, टाटा एअरलाइन्स की स्थापना की गई थी बाद में यही 1946 में एअर इंडिया के नाम से मशहूर हुई।

उधोगपतियों में टाटा घराने से एक और नाम विश्व स्तर पर चमका है और वो नाम है रतन नबल टाटा । टाटा ग्रुप की स्थापना जमशेदजी टाटा ने की और उनके परिवार ने उनको आगे बढ़ाया। विज्ञान की दुनिया में भी पारसियों का काफी नाम है। डॉक्टर होमी जहाँगीर भाबा को कौन नहीं जानता।

होमी जहाँगीर भाबा का जन्म मुंबई के एक प्रसिद्ध पारसी समाज में हुआ था। भारत आज अगर मिलिट्री और नॉन मिल्ट्री परमाणु शक्ति वाले देशो में आता है तो इसका पूरा श्रेय डॉक्टर होमी जहाँगीर भाबा को जाता है।

भारत के आर्थिक और आद्योगिक विकास में पारसी समुदाय के टाटा ग्रुप, बाडिया ग्रुप और गोदरेज जैसी कंपनियों का खास योगदान रहा है।

बॉलीवुड अभिनेता ववन ईरानी पारसी हैं भारतीय सेना के पहले फील्ड मार्शल सेम मेकनशाह भी पारसी थे। बर्तमान समय में भारत में लगभग 60000 पारसी रहते हैं।

ये सँख्या में भले ही काम हो परन्तु शिक्षा और समृद्धि के मामले में ये भारत के सबसे ऊँचे घरानो में शामिल हैं। पारसी धर्म को जानने के लिए हमें चलना होगा ईरान की ओर, जो की आज शिया मुसलमानो के लिए जाना जाता है

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भारत आने से पहले फारसियों का इतिहास

जिस देश को हम आज ईरान के रूप में जानते हैं वो कई सालों पहले फ़ारसी राष्ट्र हुआ करता था। फ़ारसी धर्म या जरथुस्त्र धर्म ईरान का एक प्राचीन धर्म था। इसकी स्थापना पैगम्बर जरथुस्त्र ने 3500 बर्ष पहले ईरान में की थी।

बताया जाता है कि जोरोएस्ट्रीनिजम छठवीं ईसा पूर्व में फारस का राजकीय धर्म था। ये बही समय है जब राजा सुदास का आर्यवर्त में शासन था और दूसरी ओर हजरत इब्राहिम अपने धर्म का प्रचार प्रसार करने में जुटे हुए थे।

पारसी धर्म को माजदाबाद या पारसीवाद के नाम से भी जाना जाता है। माजदवाद इसका नाम इसलिए पड़ा क्यूंकि पारसी देवता को अहुरा मजदा कहा जाता है

पारसी लोग केवल उन्ही की पूजा करते हैं उनके अनुसार अहुरा मजदा ने सब कुछ बनाया है। सारा ब्रह्माण्ड और ब्रह्माण्ड के अंदर की हर एक चीज़ अहुरा मजदा ने ही बनाई है।

इतिहास में फारसियों का जिक्र सबसे पहले ईसा से तीसरी शताब्दी पूर्व पुराने असीरिया स्त्रोत (sources) जो कि इनके पुराने समुदाओं में से एक था उसमे मिलता है।

असीरिया एक प्राचीन जनजाति थी जो सुमेरिया के एक गॉंव में रहती थी। इनकी भाषा अकादियन दुनिया की सबसे पुरानी भाषाओं में से एक है।

कुछ प्राचीन ईरानी अज़रबाइजान में लेक और मियां के पास आकर बस गए थे। ऐतिहासिक स्त्रोत असीरिया के अनुसार ये ईरानी परसुआ से आये थे और लेक और मिया के पास आकर बस गए और उसे पार्शिस का नाम दिया।

धीरे धीरे इस पुरे इलाके का बिकास होता गया और लोग उसे पार्शिस से पर्सिया बुलाने लगे। जैसे जैसे इनकी संख्या बढ़ी फ़ारसी ताकतबर होते गए।

इनकी भाषा ईरानी भाषा से मिलती जुलती है लेकिन अपने आप में ये एक अलग भाषा है। ये आज भी कई देशों में बोली जाती है।

कहा जाता है कि ईसा पूर्व छठवीं शताब्दी में पारसिक महान ने अपने साम्राज्य की स्थापना ईरान के पॉर्सिपोलिस में की गई थी।

उसने 3 महाद्वीपों और 20 राष्ट्रों पर काफी लम्बे समय तक शासन किया। जरथुस्त्र द्वारा स्थापित जोरोएस्ट्रीनिजम इस राज्य का राजकीय धर्म था। ईरान बनने से पहले फारस पर जिन जिन राजबंसो ने शासन किया वो इस प्रकार हैं

  • महाबद वंश
  • पेशदादी वंश
  • कवयानी वंश
  • प्रथम मोदी वंश
  • असुर वंश
  • द्वितीय मोदी वंश
  • हखामनी वंश
  • अजीमगढ़ साम्राज्य
  • अश्कानी या पार्थियन वंश
  • सोसेनियन या ससान राजवंश

प्राचीन काल में सायरस और डेसीरियस जैसे फ़ारसी राजाओं ने अपने धर्म के मूल तत्व के मुताविक परोपकार और अच्छे कर्मो को अपनाया वहीं फ़ारसी राजाओ ने बेवीलोन से निष्काषित इजराइलियों को आजाद करवाने में अहम भूमिका निभाई। इतना ही नहीं जेरुसलम में द्वितीय टेम्पल के निर्माण के दौरान फ़ारसी राजा आगे आये और अपना पूरा सहयोग दिया।

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इस प्रकार ईरान में पारसी धर्म काफी तरक्की करता रहा। कहा जाता है कि सातवीं सताब्दी तक पारसी, यहूदी और ईसाई धर्म के लोग अपनी अपनों परम्पराओं और रीति रिवाजों का अच्छी तरह से पालन करते रहे।

अरबों के आगमन से फारसियों को अपना देश छोड़कर भागना पड़ा।

जैसे है अरबो का ईरान में प्रवेश हुआ उस समय सब कुछ एकदम बदल गया। अब अरबो का ईरान में दखल ज्यादा बढ़ गया और फिर फारसियों पर अत्याचार शुरू हो गए। इस प्रकार जो फारसियों का अपना देश था उसी देश में उनको अल्पसंख्यक बनकर और छुप छुप कर रहना पड़ा।

इस दौरान फ़ारसी धर्म के लोगो को इस्लाम में परिवर्तित किया गया। जिन फारसियों ने इस्लाम धर्म स्वीकार नहीं किया उनको रातोंरात अपने ही देश से भागना पड़ा। जो नहीं भागे उनको मार दिया गया।

भारत में फारसियों का आगमन

भारत में फ़ारसी लोग 7बीं शताब्दी में शरणार्थी बनकर आये थे। जो लोग शरणार्थी बनकर भारत पहुंचे उन्हें यहाँ के लोगो द्वारा पारसी नाम दिया गया।

कहा जाता है कि फारसियों का पहला समूह 766 ईस्वी में भारत के दमन और द्वीप में पहुंचा और वहां से गुजरात में बस गया। बर्तमान समय में भारत में उनकी सँख्या 60 हजार के लगभग है।

इसके साथ साथ पहली पारसी बस्ती का प्रमाण सजान के अग्नि स्तम्भ के रूप में मिला जो अग्नि पूजक पारसियों ने बनाया। सजान नाम भी पारसियों द्वारा ही दिया गया था क्यूंकि इसी नाम का एक शहर तुर्कमेनिस्तान में हैं जहाँ से पारसी आये थे।

हिन्दू राजा जादि राणा ने पारसियों को भारत में बसने में मदद की- क़िस्सा-ए-सजान में हैं इसका बर्णन

पारसी लोग दमन द्वीप से होते हुए जब गुजरात पहुंचे तो ये बात जब गुजरात के राजा जादि राणा को पता चली तो उन्होंने पारसियों के लिए घड़ा भरकर दूध मंगवाया इससे उनका मतलब था कि उनके धर्म में बाहर के लोगो के लिए जगह नहीं थी उसी घड़े की तरह जिसमे दूध ऊपर तक भरा हुआ था।

पारसी लोगों ने उस घड़े में मुठी भर शक़्कर मिलाकर राजा को ये बताया कि वो स्थानीय लोगो को हटा कर नहीं बल्कि उनके साथ मिलकर रहना चाहते हैं। राजा इस बात से इतने खुश हुए कि उन्होंने खुले मन से पारसियों का स्वागत किया।

ऐतिहासिक तथ्यों से ये पता चलता है कि गुजरात में हिन्दू राजा जादी राणा ने 18000 पारसियों को अपने राज्य में शरण दी थी तथा उन्होंने पारसी समुदाय को अपने धर्म और अपनी संस्कृति से पूरी तरह से जुड़ने की आजादी दी थी। राजा जादी राणा ने पारसियों को अग्नि मंदिर स्थापना के लिए भूमि भी दी।

कहा जाता हैं कि उन्होंने 7बीं शताब्दी में प्रथम पारसी मंदिर को बनाया था। इन मंदिरों को अगियेरी या दायरे महल कहा जाता है पारसियों का पहला ग्रुप 17 नवंबर को सजान पहुंचा था। इसलिए 17 नवंबर पारसी समाज में सजान दिवस के रूप में मनाया जाता है।

एक महाकाव्य क़िस्सा-ए-सजान में पारसियों की ईरान से भागकर भारत में शरण लेने के बारे में पूरी जानकारी मिलती है। ईरान में कुछ हजार पारसियों को छोड़कर लगभग सभी पारसी भारत में बस गए हैं।

अंग्रेजी शासन के दौरान पारसियों ने भारत में खुद को स्थापित किया

15बीं शताब्दी में जब ईरान की तरह ही भारत में इस्लाम का हस्तक्षेप हुआ और सजान पर मुसलमानो के द्वारा आक्रमण किये जाने के कारण पारसी लोग पवित्र अग्नि को लेकर नवसारी चले गए।

16बीं शताब्दी में सूरत में जब अंग्रेजों ने अपनी फैक्ट्री लगाई थी तब पारसियों ने इस फैक्ट्री में काम किया था। उसके बाद जब अंग्रेज मुंबई पहुंचे तो पारसी भी उनके साथ चले गए। इस समय 70% पारसी मुंबई में ही रहते हैं।

पारसी लोग कृषि और व्यापार में माहिर थे इसलिए वो भारत में काफी सफल हुए। पारसियों ने भारतियों जहाज निर्माण को फिर से जीवित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। पारसियों द्वारा बनाये गए जहाज ब्रिटिश नेवी खरीदती थी। भारत में उद्द्म को हीन भावना से देखा जाता था इसलिए पारसियों को भारत में कोई बड़ा कॉम्पिटिशन नहीं मिला और वो सफलता की सीढ़ियां चढ़ते गए।

भारत में पारसी समुदाय के अंदर टकराव

भारत में आने के बाद पारसी लोग गुजरात के बन्दरगाहों और छोटे शहरों में रहते थे। पारसियों को यहाँ पर अन्य धर्मो से कड़ी चुनौती मिली क्यूंकि इनके धार्मिक संस्कार अन्य धर्मों से अलग थे। पारसी समाज के अंदर भी धार्मिक संस्कारों को लेकर टकराव हुए।

पारसी समुदाय के बीच पहला टकराव कदमी और शहनशाहियों के बीच देखने को मिला दोनों के बीच टकराव कैलेण्डर को लेकर हुआ था।कदमी को मानने वाले ईरानी कैलेण्डर का इस्तेमाल करते थे जबकि शहंशाही लोग गुजरात में इस्तेमाल होने वाले कैलेण्डर को मानते थे।

पारसियों की जमीन को कब्जे को लेकर भी पारसी समाज में भेदभाव का बाताबरण बन गया। इसी कड़ी में सन 1728 में पारसी पंचायत की स्थापना हुई जो कि पारसी समुदाय के आपस में मामलों को सुलझाने के लिए की गई थी।

उस समय स्कूल, कॉलेजों और ईसाई मशीनरियों द्वारा चलाये गए स्कूलों में भी पारसी लोग बड़ी सँख्या में जाने लगे थे, इस तरह से इस समय के दौरान पारसी समुदाय अपने रास्ते से भटकता हुआ नजर आने लगा ।

दादा भाई नरौजी ने फ़ारसी समुदाय को संगठित किया

1848 में दादा भाई नैरोजी ने पारसी युवाओं को संगठित करने के लिए योजनाएं बनाई। नैरोजी फुरतंजी और उनके कुछ दोस्तों ने पारसी समुदाय को फिर से संगठित करने का लक्ष्य रखा और रहनुमाई मजदीशन सभा की स्थापना नैरोजी फुरदान दादा भाई नैरोजी और एस एस बंगाली के द्वारा 1851 में बम्बई में की गई थी। ये सभा एक पारसी धर्म सुधार मूवमेंट था।

पारसियों के धर्मग्रन्थ का नाम जेंद अवेस्ता और भारतीय धर्मग्रथ ऋग्वेद में समानता

पारसियों के धर्मग्रन्थ का नाम जेंद अवेस्ता है। कहा जाता है कि इसे ऋग्वैदिक संस्कृत की ही एक प्राचीन ब्राँच अवेस्ता भाषा में लिखा गया है। इसी कारण से ऋग्वेद और अवेस्ता में बहुत से शब्द समान नजर आते हैं।

ऋग्वेद काल में ईरान को पारस्य देश के नाम से जाना जाता था जबकि इसके निवासियों को अत्रिकूल कहा जाता था। पारसी धर्म की मान्यताओं की बात की जाये तो ये 3 नियमो का पालन करते हैं जिनमे हुमाता यानि अच्छे विचार, उक्त यानि अच्छे शब्द, हुबर्षा यानि अच्छे कर्म। इसके आलावा दान देने में पारसी समाज का काफी विश्वास होता है।

1979 के बाद और पारसी ईरान छोड़कर भारत आये

1979 में इस्लामिक क्रांति के बाद तो ईरान में पारसियों के हालात और भी ख़राब हो गए। फारसियों के मंदिरो से जरथुस्त्र की मूर्तियों का हटाया गया और वहां पर अयातुल्ला अली खुमैनी की तस्वीरों को लगाया जाने लगा। हालात उस समय और ख़राब हो गए जब कुछ ही महीनो के बाद फारसियों के पूजा स्थल के अंदर दूसरी दिवार पर पैगंबर मुहम्मद की तस्वीर को लगा दिया गया।

स्कूलों से लेकर कॉलेजों तक ईरान के नए नेता अयातुल्ला अली खुमैनी और अयातुल्ला खुमैनी की तस्वीरो और कुरान की आयतों से सब कुछ भरा पड़ा नजर आने लगा। इसके साथ ही राज्य नियंत्रित विश्विदयालों में गैर मुस्लिमों की कोई जगह नहीं बची थी।

ईरान को इतना कुछ करने पर चैन नहीं मिला तो 1980 से 1988 के बीच ईराक के साथ हुई जंग में युवा फारसियों को बिना उनकी मर्जी के ईरान की आर्मी में सोसाइड मिशन के लिए भर्ती करने की योजना बनाई। नवंबर 2005 में कोंसिल ऑफ़ गार्जियन कंस्टीटूशन के चेयरमैन अयातुल्ला अहमद जन्नती ने पारसियों और अन्य अल्पसंख्यक धर्मो को निशाने पर लिया।

उस समय की संसद में पारसी धर्म के एकमात्र प्रतिनिधि ने जब इन चीज़ो का विरोध किया तो उनके ऊपर सख्त कार्यबाही करने की धमकी दी गई। उस समय तो उनको केवल एक चेतावनी देकर छोड़ दिया गया परन्तु पारसी सांसद को दोवारा ऐसा करने पर मौत की धमकी तक दी गई। उसके बाद पारसी समुदाय ने उनको दोवारा चुनने की हिम्मत नहीं की।

संक्षेपण

जिस देश में पारसी धर्म की उत्पति हुई बही पर ये धर्म इस समय अपनी अंतिम साँसे ले रहा है। 7 करोड़ 40 लाख नागरिकों वाले ईरान में अब इस धर्म को मानने वाले लोगों की संख्या 1 लाख से भी कम है।

और जो पारसी ईरान से दूसरे देशों के लिए निकलते हैं वो बताते हैं कि इन्हे ईरान में अपनी पहचान छुपा के रहना पड़ता है। अर्थात पारसी अपने ही देश में अपनी पहचान छुपाने को मजबूर हैं।

पारसियों के धर्म, त्यौहार और उनके मंदिरो के बारे में जानकारी

क्यों घट रही है पारसियों की जनसँख्या। पारसी समुदाय बिलुप्त होने की कगार पर।