जिम्बाब्वे, ये कहानी है उस देश की जिसने 1999 के क्रिकेट वर्ल्ड कप में दक्षिणी अफ्रीका और भारत जैसी टीमों को हरा दिया था लेकिन आज वो नामीबिया और बांग्लादेश जैसी टीमों से हार जाता है ये कहानी है गन्दी राजनीति, भ्रष्टाचार, गलत नीतियों और आर्थिक बर्बादी की जिसने एक समृद्ध देश को कंगाल बना दिया।
जिम्बाब्वे को भारत में क्रिकेट की वजह से जाना जाता है। एक समय था जब ग्रांट फ्लावर, एंडी फ्लावर, एलिस्टर कैम्बेल, हेनरी ओलोंगा और हीथ स्ट्रीक जैसे जिम्बाब्वे के खिलाड़ी विश्व क्रिकेट में काफी लोकप्रिय थे जो इनके देश की क्रिकेट को ऊंचाइयों पर ले गए थे फिर ऐसा कुछ होता है कि उनकी सारी अर्थव्यवस्था लड़खड़ा गई। हम इस देश को क्रिकेट की वजह से जानते हैं तो क्रिकेट के सफर से इस देश की हालत समझते हैं।
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अफ्रीका महाद्वीप में कुल 54 देश हैं उन्ही में से एक देश हैं जिम्बाब्वे। जिम्बाब्वे एक स्थलरुद्ध (लैंडलॉक) देश है मतलब ये चारों ओर से केवल भूमि से घिरा हुआ है और इसकी सीमा किसी भी तरफ से समुन्द्र से नहीं मिलती। ये ज़ाम्बिया, मोजाम्बिक, दक्षिण अफ्रीका और बोत्सवाना के साथ सीमा साँझा करता है।

18 अप्रैल, 1980 की बात है अफ्रीका महाद्वीप का ये देश जिसे दक्षिणी रोडेशिया के नाम से जाना जाता था और जो उस समय ब्रिटेन का गुलाम था उसे ब्रिटेन से आज़ादी मिलती है।
चूँकि रोडेशिया नाम ब्रिटिश व्यवसायी सेसाइल रोड्स (Cecil Rhodes) के नाम पर पड़ा था जो कि ब्रिटिश साउथ अफ्रीका कंपनी के संस्थापक थे जिसने 19वीं सदी के अंत में इस क्षेत्र में ब्रिटिश शासन स्थापित किया।
इसलिए रोडेशिया नाम को बदलकर जिम्बाब्वे रखा गया जो कि ग्रेट जिम्बाब्वे नामक एक शानदार प्राचीन पत्थर के शहर से लिया गया है, जो इस क्षेत्र में 11वीं से 15वीं शताब्दी के बीच मौजूद था। आजादी के बाद रॉबर्ट मुगाबे देश के पहले प्रधानमंत्री बनते हैं।
जिम्बाब्वे का क्रिकेट में सफर
आज़ादी के लगभग 1 साल के अंदर ही 1981 में जिम्बाब्वे को आईसीसी के एसोसिएट सदस्य का दर्जा मिल जाता है। ज़िम्बाब्वे ने पहला वनडे अंतर्राष्ट्रीय मैच 1983 के विश्व कप में ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ खेला और एक बड़ा उलटफेर करते हुए यह मैच जीत लिया।
1992 में ज़िम्बाब्वे को आईसीसी के पूर्ण सदस्य का दर्जा मिलता है और वह टेस्ट खेलने वाला नौवां देश बन जाता है । 1992 में जिम्बाब्वे अपनी राजधानी हरारे में भारत के साथ अपना पहला टेस्ट खेलता है जो ड्रा के साथ ख़तम होता है। ग्रांट फ्लावर, एंडी फ्लावर और एलिस्टर कैम्बेल जैसे खिलाड़ी अपना डेब्यू करते हैं।
1995 में जिम्बाब्वे ने अपना पहला टेस्ट पाकिस्तान के खिलाफ हरारे में जीतकर इतिहास रचा। 1999 के विश्व कप में भारत को 3 रन से तथा दक्षिणी अफ्रीका को 48 रन से हराकर जिम्बाब्वे ने उस विश्व कप में पाँचवा स्थान प्राप्त किया।
ये वो समय था जब नया नवेला आज़ाद हुआ जिम्बाब्वे विश्व पटल पर अपनी उपस्थिति दर्ज करवा रहा था। फिर शुरू होता है जिम्बाब्वे की बर्बादी का सफर।
जिम्बाब्वे में भूमि सुधार की नीतियाँ बनी देश की बर्बादी का कारण
जिम्बाब्वे जब आज़ाद हुआ था तो यहाँ की ज़्यादातर ज़मीन अल्पसंख्यक गोरे लोगों के पास थी। क्यूंकि ये देश अंग्रेजों का उपनिवेश था उस समय इन गोरे लोगों की आबादी कुल आबादी का लगभग 5% थी। 1980 के तुरंत बाद जिम्बाब्वे में भूमि सुधार नीतियाँ शुरू होती हैं जिसके तहत अल्पसख्यंक गोरे लोगों की जमीन छीनकर बहुसंख्यको को दी जाने लगी।
परन्तु 1980 से 2000 तक ये नीति केवल इच्छुक विक्रेता, इच्छुक क्रेता की नीति पर आधारित थी। मतलब सरकार केवल तभी ज़मीन खरीदकर अश्वेत लोगो को दे सकती थी जब मालिक (बिक्रेता) की मर्जी हो।
लेकिन वर्ष 2000 में, राष्ट्रपति रॉबर्ट मुगाबे की सरकार ने “फास्ट-ट्रैक भूमि सुधार कार्यक्रम” की शुरुआत की। जिसके अंतर्गत सरकार ने श्वेत किसानों की ज़मीनों का जबरन अधिग्रहण करना शुरू कर दिया, बो भी बिना किसी मुआवजे के।
लाखों एकड़ ज़मीन अफ्रीकी परिवारों को वितरित की गई। जिनको भूमि बितरित की गई उनको कृषि का कोई अनुभव नहीं था। न तो इन किसानो के पास कोई पूंजी थी, न कोई कृषि उपकरण और न ही कृषि में कोई विशेषज्ञता।
जिससे जिम्बाब्वे के मुख्य निर्यात होने वाले उत्पाद जैसे तंबाकू और मक्का के उत्पादन में भारी गिरावट दर्ज की गई जो कि जिम्बाब्वे की अर्थव्यवस्था की रीड मानी जाती थी। जिम्बाब्वे की GDP में भारी गिराबट दर्ज की गई।
जमीने जबरन छीनी जा रही थी जिससे विद्रोह हो रहे थे। इन विद्रोहों के कारण जिम्बाब्वे अंतरास्ट्रीय स्तर पर अलग थलग पड़ गया। कई क्रिकेट टीमों ने यहाँ पर दौरा करना असुरक्षित माना और यहाँ आने से इंकार कर दिया।
अगर यहाँ की सरकार भूमि को अल्पसंख्यक समुदाय के पास रहने देती और अपने लोगो को पहले शिक्षित करती, उनको तकनीक की जानकारी देती और फिर भूमि बितरण करती तो चीज़ें अलग तरीके से घट सकती थीं।
क्रिकेटरों ने किया इस भूमि सुधार का विरोध
खिलाड़ियो पर राजनीतिक दबाब बढ़ता जा रहा था उनकी फंडिंग भी कम हो चुकी थी। साल 2003 में जिम्बाब्वे को क्रिकेट विश्व कप की मेजबानी करनी थी परन्तु इंग्लैंड की टीम ने सुरक्षा कारणों से यहाँ आने से मना कर दिया।
10 फरबरी 2003 को हरारे में जब जिम्बाब्वे की टीम नामीबिया के खिलाफ विश्व कप का मैच खेलने उत्तरी तो हेनरी ओलोंगा और एंडी फ्लावर काले बैंड पहनकर मैदान में उतरे।
ये काले बैंड उस कोटा सिस्टम के खिलाफ थे जो सरकार ने शुरू किया था। काले बैंड पहनने वालों में एक अश्वेत खिलाड़ी था तो दूसरा स्वेत।
उन्होंने जो स्टेटमेंट दी थी उसके कुछ अंश इस प्रकार हैं
“ऐसा करते हुए, हम अपने प्रिय जिम्बाब्वे में लोकतंत्र की मृत्यु का शोक मना रहे हैं। ऐसा करते हुए, हम उन लोगों से मौन अपील कर रहे हैं जो जिम्बाब्वे में मानवाधिकारों के दुरुपयोग को रोकने के लिए जिम्मेदार हैं। ऐसा करते हुए, हम प्रार्थना करते हैं कि हमारी छोटी सी कार्रवाई हमारे राष्ट्र में समझदारी और गरिमा बहाल करने में मदद कर सकती है।”
बयान जारी करने के कारण, दोनों खिलाड़ियों को तुरंत ही देशद्रोही करार दिया गया। विश्व कप समाप्त होते ही, एंडी फ्लावर और हेनरी ओलंगा दोनों को ज़िम्बाब्वे छोड़ना पड़ा। वे दोनों यूनाइटेड किंगडम (UK) में जाकर बस गए।
हेनरी ओलंगा, जो ज़िम्बाब्वे के पहले अश्वेत क्रिकेटर थे, पर सरकार समर्थकों ने विशेष रूप से निशाना साधा और उन्हें “सफेद मुखौटा पहने काला आदमी” कहकर उनकी आलोचना की गई। सरकार की जी हजूरी करने वाले अनपढ़ लोग किसी भी स्तर पर जा सकते हैं।
ज़िम्बाब्वे के कई अन्य खिलाड़ियों ने भी रॉबर्ट मुगाबे सरकार की नीतियों का विरोध किया। 2004 में, हीथ स्ट्रीक को कप्तानी से हटाए जाने के बाद, कई अनुभवी खिलाड़ियों ने विरोध में टीम छोड़ दी। इससे ज़िम्बाब्वे की राष्ट्रीय टीम कमजोर हो गई।
जिम्बाब्वे सरकार ने अपने देश को अमीर बनाने के लिए छापी अनलिमिटेड करेंसी
सरकारें अधिक पैसा इसलिए नहीं छापती क्यूंकि पैसा देश में हो रहे उत्पादन से भी अधिक हो जाता है। मान लीजिये हमने नमक का पैकेट लेना है परन्तु नमक का पैकेट तो एक है और खरीददार एक से ज्यादा। तो नमक के पैकेट पर बोली लगेगी और जो अधिक बोली लगाएगा उसको नमक का पैकेट मिलेगा।
ऐसे ही कुछ हालात बने जिम्बाब्वे में। सरकार ने जब श्वेत किसानों से ज़मीनें छीनकर अश्वेत नागरिकों को देना शुरू किया तो देश का मुख्य निर्यात और विदेशी मुद्रा समाप्त हो गई। इसके अतिरिक्त सरकार ने युद्ध के दिग्गजों को बहुत ज्यादा पेंशन देने का निर्णय लिया। लेकिन सरकार के पास इन भुगतानों के लिए पैसा नहीं था।
इसी कारण जिम्बाब्वे ने 2000 के दशक की शुरुआत में बड़े पैमाने पर पैसा छापना शुरू किया और यह प्रक्रिया 2008 में अपने चरम पर पहुँच गई। इसी वजह से देश को इतिहास की सबसे खराब अति-मुद्रास्फीति (Hyperinflation) का सामना करना पड़ा।
जिम्बाब्वे में मुद्रा की मात्रा, वस्तुओं और सेवाओं की मात्रा से बहुत अधिक हो गई, जिससे वस्तुओं की कीमतें हर दिन दुगुनी होने लगीं। 2008 के अंत में, जिम्बाब्वे की मासिक मुद्रास्फीति दर अरबों प्रतिशत तक पहुँच गई थी। नवंबर 2008 में यह अनुमानित रूप से 79.6 अरब प्रतिशत प्रति माह के चरम पर थी।
जिम्बाब्वे में 100 ट्रिलियन का नोट छापा गया परन्तु वो नोट देकर ब्रेड का पैकेट भी नहीं खरीदा जा सकता था। लोग एक पैकेट दूध के लिए नोट ट्रालियों में भरकर ले जाने लगे। बैंकों और बचत खातों का कोई मूल्य नहीं बचा क्योंकि लोगों की जीवन भर की बचत एक ही दिन में शून्य हो गई।

बेरोज़गारी 80% के पार चली गई, और लोग भोजन और बुनियादी ज़रूरतों के लिए संघर्ष करने लगे। देश के लाखों प्रशिक्षित पेशेवर, शिक्षक, डॉक्टर और कारीगर बेहतर जीवन की तलाश में पड़ोसी देशों, खासकर दक्षिण अफ्रीका चले गए।
ज़िम्बाब्वे के डॉलर पर लोगों का विश्वास पूरी तरह समाप्त हो गया। लोग रोज़मर्रा के लेनदेन के लिए ज़िम्बाब्वे डॉलर का इस्तेमाल करना बंद कर दिया।
अंततः, 2009 में जिम्बाब्वे सरकार ने अपनी राष्ट्रीय मुद्रा को आधिकारिक तौर पर समाप्त कर दिया और अमेरिकी डॉलर सहित विदेशी मुद्राओं को कानूनी मुद्रा के रूप में अपना लिया।
इस समय जिम्बाबे बहुत सारी मुद्राओं में लेन देन करता है उनमे से प्रमुख हैं
- अमेरिकी डॉलर
- दक्षिण अफ़्रीकी रैंड
- यूरो
- ब्रिटिश पाउंड
- बोत्सवाना पुला
- चीनी युआन
जादू टोने पर अत्यधिक विश्वास ने भी किया जिम्बाब्वे को बर्बाद
ज़िम्बाब्वे में, जीवन की हर बुरी घटना—जैसे अचानक बीमारी, व्यापार में नुकसान, फसल का नष्ट होना या कोई दुर्घटना को जादू-टोने से जोड़कर देखा जाता है। यहाँ तक कि लोग किसी भी गंभीर बीमारी के लिए भी डॉक्टर के पास न जाकर तांत्रिक से सलाह लेते हैं।
ये तांत्रिक लोगो के बचाने के लिए ताबीजों का इस्तेमाल करते हैं। यहाँ तक कि साँप के द्वारा काटे जाने पर भी ये लोग एंटी-वेनम इंजेक्शन लगवाने के वजाय पीड़ित को चर्च में या तांत्रिक के पास ले जाते हैं जिससे यहाँ की मृत्यु दर बहुत अधिक है ये सब 21वी शताब्दी में हो रहा है जब दुनिया में सूक्ष्म जीवों का अध्ययन हो रहा है।
अंग्रेजी काल में जादू-टोना को एक अंधविश्वास मानते हुए, इसका अभ्यास करना या किसी पर जादूगर होने का आरोप लगाना गैरकानूनी था। लेकिन जिम्बाब्वे ने 2006 में अपने जादू-टोना दमन अधिनियम में संशोधन किया।
नए कानून ने कुछ हद तक यह मान्यता दी कि जादू टोना जैसी प्रथाएं वास्तव में अस्तित्व में हैं और अगर कोई व्यक्ति किसी को नुकसान पहुँचाने के लिए बुरी ताकतों का उपयोग करता है, तो उसे सज़ा दी जा सकती है। जिम्बाब्वे की ये अनपढ़ता भी उसकी बर्बादी का मुख्य कारण है।
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निष्कर्ष
जिम्बाब्वे एक ऐसा देश है जिसे वहाँ की सरकार की नीतियों, कोटा सिस्टम, जादू टोनो पर अत्यधिक विश्वास, अत्यधिक करेंसी छापना जैसी चीज़ों ने बर्बाद कर दिया। ज़िम्बाब्वे की वर्तमान स्थिति कई आर्थिक और सामाजिक चुनौतियों से घिरी हुई है।
देश में बेरोज़गारी दर बहुत उच्च है, जिससे बड़ी संख्या में लोग अनौपचारिक क्षेत्र (informal sector) में काम करने को मजबूर हैं या बेहतर अवसरों के लिए देश छोड़कर जा रहे हैं।
सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाएँ और शिक्षा प्रणाली अपर्याप्त फंडिंग और कर्मचारियों की कमी के कारण दबाव में हैं। अभी जिम्बाब्वे सरकार इन चीज़ों को ठीक करने का प्रयास कर रही है परन्तु अभी भी उन्हें एक लम्बी लड़ाई लड़नी बाकि है।
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