चीन आज एग्रीकल्चर को अगले स्तर तक ले जा चूका है। उसने जीन्स का परीक्षण कर कर के आम में से गुठलियां ही गायब कर दी हैं। जब पौधा तयैर किया जाता है तो उसमे गुठली होती है परन्तु बाद में जीन्स एडिटिंग के जरिये उसे ऐसा बना दिया जाता है कि उस आम से गुठली गायब कर दी जाती है।
बांस का ब्रेन मैरो, गन्ने में डालकर गन्ने को बाँस जितना लम्बा और मोटा बना दिया गया है अब एक गन्ने का जूस ही कई लोगो के लिए पर्याप्त होता है। खट्टे फलों को भी इन्होने जीन्स एडिटिंग के जरिये मीठे फलों में परिवर्तित कर दिया है। सेब और अंगूर के रंगो में ये चीनी लोग बहुत सी वैराइटी ला चुके हैं।

लेकिन वहीँ अगर भारत की बात की जाये तो बड़े अफ़सोस की बात है कि हमारे भारत के किसान अभी भी अपने पारंपरिक फसल पद्धति (ट्रेडिशनल क्रॉपिंग) में ही फंसे हुए हैं। आज भी गाँव में किसान चावल, गेहूँ, मक्का और दालों की पारंपरिक खेती करते हैं। वे कुछ नई चीज़ों को अपनाना नहीं चाहते।
लेकिन भारत में पढ़े लिखे यंग लोगो का एक तबका ऐसा भी है जो अच्छी खासी हाई प्रोफाइल, अच्छी सैलरी वाली नौकरी को छोड़कर खेती के व्यवसाय में शामिल हुआ है और इस व्यवसाय में कामयाबी हासिल करने के लिए वे उन्नत सिंचाई तकनीक, मोटर पावर और इलेक्ट्रिक मैकेनिज्म जैसे सिस्टम का इस्तेमाल कर रहे हैं।
भारतीय कृषि पर बात करने से पहले यहाँ कृषि को प्रभावित करने वाले कौन कौन से कारक हैं उन पर बात कर लेते हैं।
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Toggleभारतीय कृषि को प्रभावित करने वाले कारक
आपको जानकर हैरानी होगी कि जिस कृषि के दम पर पूरे भारत के हर इंसान का पेट भरता है वह कृषि भारत के सकल घरेलू उत्पाद (GDP) में केवल 16.5% का ही योगदान करती है।
2019 के आंकड़ों के अनुसार, 42.3% रोज़गार कृषि के कारण उत्पन्न होता है क्यूंकि बहुत से उद्योगों के लिए कच्चा माल कृषि या फार्मिंग के द्वारा ही तैयार किया जाता है। इन उद्योगों में से कुछ उद्योग हैं।
कपड़ा उद्योग (Textile Industry) : कपास (Cotton) , जूट (Jute) , रेशम (Silk) , ऊन (Wool)
गेहूं (Wheat): आटा, ब्रेड, बिस्कुट, नूडल्स आदि।
चावल (Rice): पोहा, मुरमुरे, चावल के आटे और विभिन्न चावल उत्पादों के लिए चावल मिलें।
फल (Fruits): जूस, जैम, जेली, अचार, मुरब्बा, डिब्बाबंद फल।
सब्जियां (Vegetables): डिब्बाबंद सब्जियां, सॉस, केचप, चिप्स, सूखे उत्पाद।
दूध (Milk): दही, पनीर, मक्खन, घी, आइसक्रीम।
गन्ना (Sugarcane): चीनी, गुड़, खांडसारी।
तिलहन (Oilseeds): सरसों, सोयाबीन, सूरजमुखी, मूंगफली, नारियल, ताड़।
चाय पत्ती (Tea Leaves) और कॉफी बीन्स (Coffee Beans)
विभिन्न मसाले (Various Spices): हल्दी, मिर्च, धनिया, जीरा आदि को पीसकर।
इसके अलावा भी बहुत सी इंडस्ट्री के लिए कच्चा माल खेती से ही तैयार होता है।
औद्योगीकरण ( industrialization) का कृषि पर प्रभाव
सबसे पहले चलते हैं 1991 के आर्थिक सुधार की ओर। 1991 के बाद से भारत का जीडीपी लगातार बढ़ता जा रहा था। जनसंख्या वृद्धि दर में कमी आ रही थी साथ ही साथ गरीबी अनुपात भी लगातार कम होता जा रहा था।
लेकिन अफ़सोस की बात है कि कृषि विकास में भी लगातार कमी आ रही थी बल्कि 2019 के आंकड़ों के अनुसार, जहाँ 1981 में कृषि, भारतीय जीडीपी में जहाँ 30% तक योगदान देती थी वहीं 2019 में यह घटकर 16.5% तक आ चुकी है।
इसका सबसे बड़ा कारण है श्रम प्रणाली का आधुनिक होना था जिससे श्रमिक कृषि को छोड़कर दूसरी इंडस्ट्री की तरफ जाने लगे क्यूंकि दूसरे उद्योगों में उन्हें कृषि के मुकावले ज्यादा मेहनताना मिलने लगा तथा साथ ही बदलते हुए पर्यावरण के साथ सिंचाई के प्राकृतिक संसाधन भी धीरे धीरे कम होने लगे।
उर्वरक (फर्टिलाइज़र) का उपयोग बढ़ रहा था। मशीन फार्मिंग के बढ़ने से कृषि में कुछ नकारात्मक प्रभाव भी सामने आ रहे थे। 1990 के आस-पास होने वाले इस परिवर्तन ने कृषि विकास को धीरे-धीरे कमज़ोर करना शुरू किया।
भारत के 47% किसानो के पास 1 हेक्टेयर से भी कम भूमि है
क्षेत्रफल के हिसाब से भारत दुनिया का सातवाँ सबसे बड़ा देश है। भारत में लगभग 195 मिलियन हेक्टेयर भूमि पर खेती होती है। इतने बड़े क्षेत्र में खेती होने के बावजूद भारतीय किसानों की आर्थिक स्थिति में कमी आ रही है।
इसका सबसे बड़ा कारण हैं छोटे और सीमांत (मार्जिनल) किसान। सीमांत किसान का मतलब ऐसे किसानों से है जिनके पास एक हेक्टेयर से भी कम ज़मीन है बहुत से किसान भारत में ऐसे हैं जिनके पास बहुत कम ज़मीन है। इसलिए उन्हें उन्नत तकनीक का फायदा नहीं मिल पाता है।
2019 के आंकड़ों के अनुसार भारत का 47% कृषि भूमि इन सीमांत किसानों के पास है। यह चीज़ भारतीय कृषि के लिए एक बहुत बड़े नुकसान और चुनौती की बात है।
क्योंकि ऐसे किसान न तो उन्नत भारतीय तकनीक का इस्तेमाल कर पाते हैं न ही मानव शक्ति को बढ़ा पाते हैं इसलिए इनकी उत्पादकता पर भी असर पड़ता है और किसान की आय तो कम होती है साथ ही भारतीय कृषि से विकसित होने वाले समग्र प्रदर्शन पर भी इसका असर पड़ता है।
किसानो का एक ही फसल को बार बार बोना (ट्रेडिशनल फार्मिंग)
हमारे देश में अगर कोई छोटी से छोटी चीज़ बनाता है चाहे वो सुई या किसी शर्ट का बटन ही हो तो उसे खुद उसका मूल्य तय करने का अधिकार होता है।
परन्तु कृषि एक ऐसा व्यवसाय है जिसमे किसानो को अपने द्वारा उगाई गई फसलों के दामों के लिए मार्किट पर निर्भर रहना पड़ता है। इसका सबसे बड़ा कारण है कि वो उगाया ही नहीं जा रहा जिसकी ज़रूरत है।
भारतीय किसान बार बार एक ही तरह की फसलें उगाते रहते हैं। ऐसे में चावल, गेहूँ जैसे पारंपरिक फसलों की खेती तो कई गुना बढ़ जाती है पर पोषण वाली फसलें, सब्ज़ियाँ और दूसरी चीज़ें जिनकी वाकई मांग है उनके उत्पादन में कमी आती है।
जिससे सरकार को किसानों का हित देखते हुए बेवजह अनाजों को खरीदना पड़ता है जबकि पुराना अनाज गोदामों में सड़ रहा होता है। इसी को लेकर हम आए दिन न्यूज़ में सुनते हैं कि बारिश की वजह से लाखों टन अनाज सड़ गया। क्योंकि जरूरत से ज्यादा अनाज प्रोडूस हो रहा है और जिनकी ज़रूरत है वह चीज़ें ज़्यादा प्रोडूस (उत्प्न्न) नहीं की जा रहीं।
ऐसे में भारतीय की पोषण संबंधी मांग को पूरा करने के लिए हमें भोजन बाहर से आयात करना पड़ता है जिससे भारतीय अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
किसानो द्वारा खर्चे का हिसाब न रखना
हमारे किसान खेती तो करते हैं, अच्छे बीजों का इस्तेमाल भी करते हैं परंतु इसका हिसाब नहीं रखते कि खेती करते समय उनका कितना खर्चा हो गया। जिससे वो ये नहीं समझ पाते कि उन्होंने कितना निवेश किया और उन्हें इसका कितना फायदा हो रहा है।
अगर हर किसान अपने निवेश और अपनी उत्पादकता के ज़रिए अपने फायदे और घाटे का अनुमान लगाने लगे तो भारतीय कृषि अगले स्तर तक पहुँच जाएगा।
गॉव के किसानो में सिंचाई प्रणाली (इरीगेशन सिस्टम) की समझ का अभाव
अगर फसलों की पैदावार की बात की जाए तो सिंचाई प्रणाली सबसे ज़्यादा ज़रूरी कारक है। भारत के पास एक विविध भूमि है जहाँ अलग-अलग तरह के क्षेत्रों में पानी की उपलब्धता और पानी की मांग अलग-अलग तरह की है।
भारतीय किसान को अपने क्षेत्र की ज़मीन को समझना होगा यह समझना होगा कि वे अपनी भूमि की सिंचाई प्रणाली को ध्यान में रखते हुए कौन सी फसल उगा सकते हैं। आजकल सिंचाई को लेकर बहुत सी उन्नत तकनीकें भारतीय बाज़ार में आ चुकी हैं लेकिन आज भी गाँव में रहने वाले किसान इससे अनजान हैं।
भारतीय कृषि का परिवर्तन (ट्रांसफॉर्मिंग एग्रीकल्चर)
कृषि का परिवर्तन (ट्रांसफॉर्मिंग एग्रीकल्चर) वह प्रक्रिया है जिसमें खेत की उत्पादकता को बढ़ाया जाता है ताकि कृषि उद्योग से जुड़े लोगों की अच्छी आय उत्पन्न हो सके। भारतीय कृषि को ट्रांसफॉर्म करने वाले कारक कौन कौन से हैं आइये देखते हैं।
कृषि मशीनीकरण (फार्म मशीनाइजेशन)
ट्रांसफॉर्मिंग की इस प्रक्रिया में सबसे ज़्यादा ज़रूरी है फार्म मशीनीकरण। अगर हम आज़ादी से पहले के भारत को देखें तो भारत में पशु शक्ति का ज़्यादा इस्तेमाल किया जाता था।
मशीन का इस्तेमाल बहुत कम किया जाता था लेकिन धीरे-धीरे न सिर्फ शहरी क्षेत्रों के किसान, बल्कि ग्रामीण क्षेत्रों के किसान भी अपने खेतों में मशीन शक्ति का इस्तेमाल करने लगे हैं।

आंकड़ों की बात की जाए तो 1951 में 97% किसान मानव और पशु शक्ति के ज़रिए खेती किया करते थे। वहीं 1971 में यह प्रतिशत घटकर 67% हो गया। 2013 और 2014 के आंकड़ों की बात की जाए तो सिर्फ 12% ही ऐसे किसान हैं जो पशु और मानव शक्ति का इस्तेमाल करते हैं।
अगर आपको मशीन शक्ति का सबसे अच्छा उदाहरण देखना है तो वह है ट्रैक्टर जो अब हर गाँव की पहचान बन चुकी है लेकिन मशीन शक्ति के इस परिवर्तन को अभी भी छत्तीसगढ़, बिहार, ओडिशा, झारखंड तक पूरी तरह से पहुँचना बाकि है।
उन्नत तकनीक (एडवांस टेक्नोलॉजी)
गाँवों में रहने वाले और वहाँ खेती करने वाले किसान अभी भी इस उन्नत तकनीक से अनजान हैं। आइए समझते हैं कि ये उन्नत तकनीकें क्या-क्या हैं। आज प्रौद्योगिकी (टेक्नोलॉजी) का युग है।
पहले किसान जब भी बीज बोया करते थे तब वे प्राकृतिक बीज का इस्तेमाल करते थे बल्कि आज भी करते हैं जो पौधों से ही उन्हें मिलता है लेकिन उनमें से ज़्यादातर बीज खराब निकल जाते हैं और इससे फसल का उत्पादन उतना नहीं होता जितनी मेहनत किसानों ने की होती है।
आज हाइब्रिड सीड्स (संकर बीज) ने बाज़ार में अपनी जगह बना ली है। ये हाइब्रिड सीड्स हाइब्रिडाइजेशन तकनीक के ज़रिए तैयार किए जाते हैं जिनमें बीमारियों से लड़ने की क्षमता दूसरे सामान्य बीज की तुलना में ज़्यादा होती है।
जिनसे न तो कई तरह के रासायनिक उर्वरक (केमिकल फर्टिलाइज़र) की ज़रूरत होती है और न ही कीटनाशकों (पेस्टिसाइड) की और चूंकि रसायन का इस्तेमाल कम होता है इससे मिट्टी की गुणवत्ता बढ़ जाती है।
हालांकि, इसके कुछ नुकसान भी हैं, जैसे कि हर साल नए बीज खरीदने की ज़रूरत पड़ती है क्योंकि हाइब्रिड बीजों से अगली पीढ़ी में समान गुण नहीं मिलते।
साथ ही, कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि हाइब्रिड किस्मों की गुणवत्ता और पोषण पारंपरिक किस्मों की तुलना में कम हो सकती है।
उन्नत सिंचाई प्रणाली (एडवांस इरीगेशन सिस्टम)
जब किसान एक बार बीज बो देते हैं तो बारी आती है सिंचाई की और इसमें किसानों की मदद करता है उन्नत सिंचाई प्रणाली (एडवांस इरीगेशन सिस्टम) । भारत में 70% से अधिक पानी कृषि में इस्तेमाल होता रहा है लेकिन जितनी ज़रूरत है उससे ज़्यादा पानी खेतों में बहा दिया जाता है और यही सिंचाई प्रणाली की सबसे बड़ी कमी है।
साथ ही पानी की गुणवत्ता भी इतनी अच्छी नहीं होती जिससे फसल खराब हो सकती है इसलिए तकनीक ने डीप इरीगेशन सिस्टम पेश किया है जो हमारी भौगोलिक स्थिति के हिसाब से हमें अपनी फसलों में पानी इस्तेमाल करने की सुविधा देता है।
इस सिंचाई प्रणाली के ज़रिए हम खेतों में बहने वाले पानी में कीटनाशक, उर्वरक और खनिज भी सही मात्रा में मिला सकते हैं जिससे पौधे का जीवन चक्र कई गुना बढ़ जाता है और किसान की लागत और उनके बजट में बहुत कमी आती है। इस प्रकार मुनाफा अपने आप बढ़ने लगता है।
ड्रोन तकनीक का उपयोग
भारत में ड्रोन सिस्टम का इस्तेमाल आमतौर पर फोटोग्राफी, वीडियोग्राफी, यातायात निगरानी या सुरक्षा में ज़्यादा होता है लेकिन अब ड्रोन तकनीक कृषि का भी एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन चुकी है।
ड्रोन की मदद से किसानों की मेहनत कम हो जाती है। ये कृषि ड्रोन खेतों में उगने वाली फसल के साथ-साथ ज़बरदस्ती उगने वाली घास की भी पहचान कर सकते हैं जो फसल उत्पादन को कम करते हैं।
ये ड्रोन पौधों की तरह-तरह की बीमारियों को समझकर कीटनाशक के इस्तेमाल में भी मदद करते हैं। कृषि रसायन उद्योग में इनका बहुत ज़्यादा इस्तेमाल हो रहा है। इन ड्रोनों ने खेती (कल्टीवेशन) और कटाई (हार्वेस्टिंग) जैसे प्रक्रियाओं को बहुत आसान बना दिया है।

भारत में इन ड्रोनों का इस्तेमाल तेजी से बढ़ा है खासकर पंजाब, हरियाणा, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, तेलंगाना, महाराष्ट्र, कर्नाटक और केरल जैसे राज्यों में। इन ड्रोन की मदद से भारतीय कृषि को एक बड़े बाज़ार में तब्दील किया जा रहा है। इन ड्रोनों का इस्तेमाल कीटनाशक और कटाई के स्प्रे के लिए भी किया जाता है।
इसके साथ-साथ इन ड्रोनों में कैमरा फिट कर के अपनी फसल की तस्वीरें ले सकते हैं और संक्रमण को आसानी से पहचान सकते हैं।
आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और डिजिटल समाधान
आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI), ई-डिजिटल पोर्टल, सैटेलाइट इमेज और खास तरह के पोर्टल्स की मदद से किसान सही समय पर सही निर्णय ले कर अपने पैसे के साथ-साथ अपनी मेहनत को बचा सकते हैं और साथ ही फसल की गुणवत्ता (क्वालिटी) और मात्रा (क्वांटिटी) दोनों को बढ़ा भी सकते हैं।
अब ड्राइवरलेस कार के साथ-साथ ड्राइवरलेस ट्रैक्टर को भी विदेशों में काम करते देखा जा सकता है ये जीपीएस सिस्टम से काम करते हैं और इनकी मदद से खेती करना बहुत आसान हो गया है।
लेकिन इसमें एक समस्या है कि जिनके पास ज़मीन की कोई कमी नहीं है वे तो इन उन्नत तकनीकों का फायदा उठा सकते हैं पर गाँव के किसान जिनके पास ज़मीन 1 एकड़ से भी कम है उनके पास उतना बजट ही नहीं होता।
इसलिए भारत सरकार इस परेशानी को दूर करने के लिए अलग-अलग तरह के कार्यक्रम चलाती है जहाँ पर इन उपकरणों को खरीदने की बजाय इनको किराए पर (रेंट) भी खरीदा जा सकता है या दूसरे किसानों के साथ साझा (शेयर) करके इनकी सेवाओं का लाभ उठाया जा सकता है।
खेती में ग्राफ्टिंग (Grafting) का इस्तेमाल
ग्राफ्टिंग (Grafting), जिसे कलम बांधना भी कहते हैं खेती की एक बहुत ही पुरानी और प्रभावी तकनीक है। इसमें दो अलग-अलग पौधों के हिस्सों को इस तरह जोड़ा जाता है कि वे एक ही पौधे के रूप में विकसित हो सकें।
यह विधि पौधों में वांछित गुणों को जोड़ने और पैदावार बढ़ाने के लिए बहुत उपयोगी है और इस तरह की उन्नत तकनीक का इस्तेमाल केवल बड़े किसान ही नहीं बल्कि छोटे किसान भी कर सकते हैं।

कुछ इस तरह से सब्ज़ियों और फसलों को तैयार किया जाता है कि उनमे जैविक और अजैविक दबाव (बायोटिक और एबायोटिक प्रेशर) को झेलने की क्षमता बिकसित हो जाती है।
इसके साथ ग्राफ्टिंग के ज़रिए ऐसा बीज तैयार किया जा सकता है जो बाढ़ प्रभावित इलाकों में ज़्यादा पानी की मौजूदगी के बावजूद भी खराब नहीं होता। हमारे वैज्ञानिक इसी ग्राफ्टिंग तकनीक के ज़रिए टमाटर और बैंगन की खेती कर चुके हैं।
जीन एडिटिंग (Gene Editing) के द्वारा खेती
उन्नत विज्ञान का एक अनोखा तरीका है जिसमें उच्च गुणवत्ता वाले संदर्भ जीन्स को पौधों के जीन्स के साथ ब्रीड (संकरण) किया जाता है। इससे न सिर्फ गुणवत्ता और उत्पादन बढ़ता है बल्कि मात्रा भी बढ़ती है।
सिर्फ अनाज में ही नहीं बल्कि फल जैसे आम, केला, नारियल में भी जेनेटिक क्रांति (Genetic Revolution) का इस्तेमाल किया जा रहा है। दूध उत्पादन और फार्म में भी गाय के जीन्स में परिवर्तन करके उच्च गुणवत्ता वाले पशु (कैटल) उत्पन्न किए जाते हैं।
बागवानी (हॉर्टिकल्चर) और रेशेदार फसलों का महत्व
बागवानी में न केवल पारंपरिक अनाज बल्कि फल, सब्ज़ियाँ, मसाले और खास तौर पर फूलों की भी खेती की जाती है। यह कृषि को वास्तविक वृद्धि तक ले जाता है और इस बागवानी ने भारतीय किसानों की उत्पादकता को बहुत बढ़ाया है।
2014 में भारत में राष्ट्रीय बागवानी मिशन की शुरुआत की गई। यह भारतीय कृषि की दुनिया में एक स्वर्ण क्रांति (गोल्डन रेवोल्यूशन) थी। यह एक ऐसा दौर था जब भारत फल और सब्ज़ियों का उत्पादन करने और विश्व स्तर पर निर्यात करने में चीन से भी आगे बढ़ गया था।
न सिर्फ फल और सब्ज़ियाँ बल्कि रेशेदार उत्पादन (फाइबर प्रोडक्शन) भी कृषि को वैश्विक स्तर तक ले जाता है। कपास (कॉटन) सबसे महत्वपूर्ण रेशा है जिसकी व्यावसायिक महत्ता बहुत ज़्यादा है।
2002 में बीटी कॉटन का कॉन्सेप्ट भारत में शुरू हुआ जहाँ पर कपास के बीजों को लेकर कंपनियों ने बहुत निवेश किया। कृषि क्षेत्र में यह एक स्वर्ण क्रांति थी। आनुवंशिक रूप से उन्नत कपास (जेनेटिकली इम्प्रूव्ड कॉटन) को बीटी कॉटन कहा जाता है। इस बीटी कॉटन ने भारत में भी चीन की तरह बड़े पैमाने पर उत्पादन को बढ़ावा दिया।
निष्कर्ष
भारत, जिसे हम गाँवों का देश भी कहते हैं, यहाँ गाँवों के लोगों के लिए उनके जीवन का साधन ज़्यादातर कृषि ही है। अगर भारतीय महिलाओं की बात की जाए तो भारत के गाँव की 71% महिलाएँ कृषि भूमि में महिला श्रमिक के रूप में काम करती हैं।
महिला सशक्तिकरण की बात करते समय हम इस बात पर ध्यान क्यों नहीं देते कि कृषि महिलाओं को, खासकर गाँव की महिलाओं को जो ज़्यादातर पढ़ी-लिखी नहीं हैं, उन्हें अपने पैरों पर खड़े होने का अवसर देती है।
कृषि की गुणवत्ता बढ़ा कर भारतीय विश्व स्तर पर अपने देश को नई पहचान दे सकते हैं परन्तु उससे पहले किसानो को ये समझना होगा कि मिट्टी में भी जान होती है। इसमें कोई भी बीज डाल दिया जाये वो अंकुरित हो जाता है। सब प्रजातियों में ये काम मादा करती है इसलिए भारत में धरती को माँ का दर्जा प्राप्त है।
लेकिन जिस तरह से प्रतिदिन आलू खाना किसी के लिए संभव नहीं उसी प्रकार बार बार परम्परागत फसलों की खेती से मिट्टी से पोषक तत्व गायव हो चुके हैं। इस मिटटी को फिर से उपजाऊ बनाने के लिए चीन का अनुशरण किया जा सकता है।
कंगाली में जिस खेती को अपनाया आज उसी खेती से मुँह मोड़ रहा भारत। पढ़ने के लिए क्लिक करें