यमराज को भारतीय समाज में मृत्यु के देवता के रूप में माना जाता है। माना जाता है कि जब किसी की मृत्यु होती है तो यमराज के यमदूत आते हें और मरने वाले की आत्मा को अपने साथ ले जाते हैं।
और उसके कर्मों के अनुसार उसको स्वर्ग या नर्क में स्थान मिलता है। यमराज के सहायक के रूप में चित्रगुप्त का बर्णन है जो हर प्राणी का लेखा जोखा रखता है। सबसे पहले किस ग्रंथ में इनका ज़िक्र हुआ, यह जानने से यह समझने में आसानी होगी कि भारतीय समाज को इन चरित्रों की ज़रूरत क्यों पड़ी।
Table of Contents
Toggleऋग्वेद में सबसे पहले मिलता है यमराज का जिक्र
यमराज का उल्लेख सबसे पहले, भारत के सबसे प्राचीन ग्रन्थ ऋग्वेद (1500 से 1000 ईसा पूर्व) और बाद के अथर्ववेद में मिलता है। हालांकि इन शुरुआती उल्लेखों में उनके चरित्र का पूर्ण विकास नहीं हुआ था जैसा कि हम बाद के पुराणों में देखते हैं।
ऋग्वेद में यम का बर्णन, मृतकों के राजा और पितरों के संरक्षक के रूप में मिलता है। उनको पहला मनुष्य माना गया है जो मृत्यु को प्राप्त हुआ था इसलिए उनको मृतकों के मार्गदर्शक के रूप में भी देखा जाता है।
उन्हें मृत्यु के देवता के रूप में चित्रित किया गया है, लेकिन उस समय पाप-पुण्य के आधार पर न्याय और लेखा-जोखा रखने की अवधारणा उतनी स्पष्ट नहीं थी और न ही चित्रगुप्त के चरित्र का कोई बर्णन मिलता है। चित्रगुप्त एक सहयोगी की प्रक्रिया में इसके बाद लिखे ग्रंथों में आये हैं।
ऋग्वेद में यमराज के बारे में कुछ महत्वपूर्ण मंडल और सूक्तियाँ
ऋग्वेद (मंडल 10, सूक्त 14) में यम को पहला मनुष्य बताया गया है जिसने मृत्यु का अनुभव किया और मृत्युलोक का मार्ग खोजा। इस कारण उन्हें मृतकों का मार्गदर्शक और शासक माना जाता है।
ऋग्वेद में यमी और यम का प्रसिद्ध संवाद (मंडल 10, सूक्त 10) है, जो मृत्यु और जीवन के रहस्यों पर प्रकाश डालता है, हालाँकि इसमें यम की न्यायकर्ता की भूमिका पर विशेष ज़ोर नहीं है।
ऋग्वेद के मंडल 10 का सूक्त 10, जिसे यमी-यम संवाद के नाम से जाना जाता है इसमें यम (मृत्यु के देवता और पहले मरने वाले मनुष्य ) और उनकी जुड़वां बहन यमी के बीच एक संवाद है।
यमी, यम की जुड़वा बहन थी जो यम से विवाह की तरह का प्रस्ताव रखती है जिसे यम, देवताओं के नियमो का हवाला देते हुए कठोरता से मना कर देते हैं ये सवांद बताता है कि उस समय भारतीय समाज, एक बेहतर समाज बनने की तरफ अग्रसर था। यह सूक्त उस समय की सामाजिक व्यवस्था और नैतिक सीमाओं पर प्रकाश डालता है।
ऋग्वेद के बाद के ग्रन्थ अथर्वेद में मिलता है यमराज का उल्लेख
अथर्ववेद(18वें कांड) में भी यम का उल्लेख मिलता है और मृत्यु संबंधी अनुष्ठानों में उनका आह्वान किया जाता है। अथर्ववेद में यमदूतों का भी उल्लेख मिलता है, जो यमराज के संदेशवाहक और मृतकों की आत्माओं को यमलोक तक ले जाने वाले माने जाते हैं।
ऋग्वेद की तरह, अथर्ववेद में भी चित्रगुप्त का स्पष्ट और विकसित चरित्र नहीं मिलता है जैसा कि पुराणों में है। अथर्ववेद मुख्य रूप से यमराज पर केंद्रित है और उनके सहायकों या कर्मों का लेखा-जोखा रखने वाले किसी विशिष्ट देवता का उल्लेख नहीं करता।
उस समय का मनुष्य अपने शुरुआती स्तर पर था और मृत्यु के बाद क्या होता है , इन प्रश्नो को लेकर कुछ ज्यादा ही संशय में था। हालाँकि मृत्यु के बाद क्या होता है ये प्रश्न अभी भी ज्यों का त्यों ही है परन्तु इस प्रश्न पर भारतीय समाज ने “गरुड़ पुराण के बाद” एक आम राय बना ली है क्यूंकि इसका उत्तर मृत्यु के बाद ही मिल सकता है और मरने के बाद कोई वापस आकर बताता नहीं।
वेदो और उपनिषदों के बाद जब पुराण लिखे गए तो यमराज पूरी तरह से भूमिका में दर्शाये गए
शुरुआती वेदों ( ऋग्वेद और अथर्ववेद) के बाद, ब्राह्मण ग्रंथों और उपनिषदों में यम के चरित्र का और विकास हुआ। यहाँ पर नैतिक व्यवस्था और कर्म के सिद्धांत की नींव पड़नी शुरू हुई।
लेकिन इसके बाद में लिखे गए महाकाव्यों (रामायण और महाभारत) और विशेष रूप से पुराणों में यमराज और चित्रगुप्त के चरित्र अधिक विस्तृत और विशिष्ट रूप में सामने आते हैं।
महाभारत में यम को धर्म के अवतार के रूप में दिखाया गया है और युधिष्ठिर, यमराज के पुत्र थे और जीवन में कुछ भी कठिनाई आ जाये वो अपने धर्म का पालन करते थे । यहाँ पर न्याय और धर्म के सिद्धांतों पर ज़ोर दिया गया है।
जब पुराण (गरुड़ पुराण, विष्णु पुराण आदि) लिखे गए तो इन पुराणों में यमराज की भूमिका, मृत्यु के देवता और न्यायकर्ता के रूप में पूरी तरह से स्थापित हो जाती है।
गरुड़ पुराण में चित्रगुप्त नामक चरित्र का पहली बार बर्णन मिलता है
गरुड़ पुराण विशेष रूप से मृत्यु के बाद की प्रक्रियाओं, यमलोक और आत्मा के सफर का विस्तृत वर्णन करता है और यहीं पर चित्रगुप्त का चरित्र एक महत्वपूर्ण सहायक के रूप में स्पष्ट रूप से सामने आता है वो प्रत्येक व्यक्ति के कर्मों का लेखा-जोखा अपने वही खाते में रखते हैं और यमराज को न्याय करने में मदद करते हैं उस समय कंप्यूटर का अविष्कार नहीं हुआ था, शायद इसलिए बही खाते के उपयोग को दर्शाया गया है।

गरुड़ पुराण में यमपुरी का बर्णन
- गरुड़ पुराण में, यमलोक को पृथ्वी से 86,000 योजन (एक योजन लगभग 8-9 मील माना जाता है) की दूरी पर दक्षिण दिशा में स्थित बताया गया है।
- ये विशाल नगरी चारों ओर से सात दीवारों की परिक्रमा से घिरी हुई है।
- यमराज का महल जो कि सोने का बना हुआ है इसके बीच में स्थित है। इस महल को कालीत्री कहा जाता है।
- यमराज जिस सिंहासन पर विराजमान होते हैं उसे विचार-भू कहा जाता है।
- यमराज के प्रमुख सहायक चित्रगुप्त हैं, जो प्रत्येक प्राणी के कर्मों के अनुसार उनका लेखा-जोखा रखते हैं। उनका भवन यमराज के महल से कुछ दूरी पर स्थित है।
- यमदूत, यमराज के सेवक हैं जो मृत्यु के बाद आत्माओं को यमलोक तक ले जाते हैं। उनका स्वरूप भयानक बताया गया है।
- यमलोक के प्रत्येक द्वार पर द्वारपाल तैनात होते हैं जो आत्माओं को उनके कर्मों के अनुसार प्रवेश देते हैं।
- गरुड़ पुराण में मृत्यु के बाद आत्मा द्वारा यमलोक तक की यात्रा का विस्तृत वर्णन है। यह यात्रा 47 दिनों में पूरी होती है और इस दौरान पापी आत्माओं को अनेक कष्ट सहने पड़ते हैं।
- यमलोक के रास्ते में विभिन्न भयानक नदियाँ, पर्वत, और पीड़ादायक स्थान आते हैं। वैतरणी नदी, जो पापियों के रक्त और पीक से भरी हुई है, को पार करना सबसे कठिन माना जाता है।
- यमराज प्रत्येक आत्मा के कर्मों का न्याय करते हैं। चित्रगुप्त द्वारा प्रस्तुत किए गए लेखा-जोखा के आधार पर, पुण्यात्माओं को स्वर्ग और पापी आत्माओं को नरक भेजा जाता है।
- गरुड़ पुराण में विभिन्न प्रकार के पापों के लिए भयानक नरकों का विस्तृत वर्णन है, जहाँ पापियों को उनके कर्मों के अनुसार कठोर दंड दिए जाते हैं। इन नरकों में रौरव, अंधतामिस्र, कुम्भीपाक, अशीपत्रवन, तामिस्त्र आदि प्रमुख हैं।
इन चरित्रों की भारतीय समाज को क्यों पड़ी ज़रूरत
उस समय के समाज में सेना या पुलिस की व्यवस्था नहीं थी इसलिए लोगो के मन में इस तरह के सिद्धांतों को बैठा कर ही समाज को बेहतर ढंग से चलाया जा सकता था। इन चरित्रों की भारतीय समाज को अवस्य्क्ता क्यों पड़ी इसके कुछ मुख्य कारण इस प्रकार हैं।
नैतिक जिम्मेदारी:- यमराज और चित्रगुप्त की अवधारणा, लोगों को उनके कर्मों के प्रति जिम्मेदार महसूस कराती है। यह विश्वास कि मृत्यु के बाद उनके अच्छे और बुरे कर्मों का लेखा-जोखा होगा और हर मनुष्य, अपने किये गए कर्मो के लिए उत्तरदायी है इसलिए उसको, उसके कर्मो के अनुसार फल मिलेगा, लोगों को नैतिक और धार्मिक जीवन जीने के लिए प्रेरित करता है।
न्याय की अवधारणा: यह विचार कि एक सर्वोच्च शक्ति है जो मृत्यु के बाद भी न्याय करती है, लोगों को इस जीवन में होने वाले अन्याय को सहने और एक उच्चतर न्याय व्यवस्था में विश्वास रखने की शक्ति देता है। यह सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखने में भी सहायक होता है।
मृत्यु के भय का अंत : दुनिया का एकमात्र सत्य मृत्यु है इससे आज तक कोई नहीं बच पाया है , लेकिन यह हमेशा से रहस्य और भय का विषय रहा है। यमराज और चित्रगुप्त के चरित्र मृत्यु के बाद के जीवन पर जोर देते हैं । यह विचार कि मृत्यु के बाद एक व्यवस्थित प्रक्रिया है जहाँ आत्मा का न्याय होता है, मृत्यु के भय को कुछ हद तक कम करता है।
संक्षेप में, पुराणों ने यमराज और चित्रगुप्त के चरित्र की अवधारणाओं को जनमानस तक पहुँचाने और उन्हें लोकप्रिय बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
भारत में फैले कई अंधविश्वासों के पीछे के वैज्ञानिक कारण पढ़ने के लिए क्लिक करें
One Response
I used to be able to find good advice from your blog articles.